बिहार में अब MY समीकरण बीती बात, ME फैक्टर ने गढ़ी जोरदार जनादेश की बुनियाद… NDA ने रच दिया इतिहास
Bihar Election Results 2025: 2025 के विधानसभा चुनाव के नतीजों में एक नया समीकरण उभरता दिख रहा है. चुनावों ने यह स्पष्ट कर दिया है कि 1995 का बिहार, जब मुस्लिम-यादव समीकरण का बोलबाला था, 2025 का बिहार नहीं है.
‘MY’ (मुस्लिम-यादव) समीकरण ने लालू प्रसाद यादव की राजद के उदय को गति दी और लगभग तीन दशकों तक बिहार की राजनीति को आकार दिया. 2025 के विधानसभा चुनाव के नतीजों में एक नया समीकरण उभरता दिख रहा है -ME (महिला और ईबीसी) – जिसके नतीजे के रूप में एनडीए को बिहार चुनावों में निर्णायक जनादेश मिला है. सामाजिक कल्याण, जेंडर और आकांक्षाओं द्वारा परिभाषित एक नया अंकगणित बिहार में एनडीए के लिए कारगर साबित हुआ है, जहां चुनावों को मुख्यतः जाति के चश्मे से देखा जाता रहा है.
तीन फैक्टर
एनडीए का बिहार का चुनावी अभियान तीन फैक्टर पर आधारित था. महिलाओं का वोट और उनके बीच नीतीश की अपील, चिराग पासवान और उपेंद्र कुशवाहा की वापसी से बढ़ा जातिगत समीकरण, और युवा, जिन्हें एनडीए द्वारा बार-बार पिछली राजद सरकारों के दौरान व्याप्त ‘कट्टा, दुनाली, रंगदारी’ की याद दिलाई गई.
दूसरी ओर महागठबंधन मुसलमानों और यादवों से आगे अपनी जातिगत सीमाओं को बढ़ाने में नाकाम रहा, और ‘वोट चोरी’ पर केंद्रित उसका अभियान मतदाताओं के दिलों में जगह बनाने में नाकाम रहा. दरअसल, विश्लेषण से पता चलता है कि एनडीए ने ‘MY’ मतदाताओं का एक बड़ा हिस्सा भी अपने पाले में कर लिया.
जातिगत समीकरण
चुनावों ने यह स्पष्ट कर दिया है कि 1995 का बिहार, जब मुस्लिम-यादव समीकरण का बोलबाला था, 2025 का बिहार नहीं है. इस बार एनडीए का जातीय आधार व्यापक था. भाजपा का सवर्ण आधार था, जबकि नीतीश ने अति पिछड़ी जातियों का समर्थन जुटाया, जो हाल के चुनावों में एक्स फैक्टर बनकर उभरा है. राष्ट्रीय लोक मोर्चा के कुशवाहा, लोजपा के पासवान और हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा (S) का दलित समर्थन, सभी एनडीए के पक्ष में पूरी तरह से एकजुट दिखाई दिए.
ऐसा लगता है कि 2020 के चुनावों में एनडीए की बढ़त के पीछे अति पिछड़ों ने अहम भूमिका निभाई , जहां एनडीए मामूली अंतर से सरकार बनाने में कामयाब रहा. नीतीश सरकार द्वारा जारी जाति सर्वेक्षण के आंकड़ों से पता चला है कि अति पिछड़े वर्ग की आबादी 36 फीसदी है. एनडीए और नीतीश, जो कुर्मी समुदाय (आबादी का लगभग 3%) से हैं, ने अति पिछड़ों को टारगेट करके कल्याणकारी योजनाओं के माध्यम से इस आधार को मजबूत किया है.
यह जेडीयू के लिए एक आश्चर्यजनक बदलाव है, जिसने 2020 के चुनावों में तीन दर्जन से अधिक सीटें गंवा दी थी, जहां ईबीसी और एससी आबादी अच्छी-खासी थी. जेडीयू ने जिन 115 सीटों पर चुनाव लड़ा था, उनमें से केवल 43 पर ही जीत हासिल की थी. इस बार, उसकी सीटें 70 से ज्यादा हैं.
रणनीतिक जातिगत समीकरण भी महत्वपूर्ण था. उदाहरण के लिए, मगध और शाहाबाद जैसे क्षेत्रों में, एनडीए ने भोजपुरी अभिनेता पवन सिंह को प्रचार के लिए भेजा और उपेंद्र कुशवाहा के प्रभाव के साथ, इसने राजपूत और कुशवाहा वोट बैंकों को एकजुट कर दिया.
महिला मतदाता
पिछले पांच वर्षों में बिहार में महिलाएं एक नए वोट बैंक के रूप में उभरी हैं, जो सिर्फ पहचान और जातिगत मुद्दों से कहीं आगे बढ़कर मतदान करती दिख रही हैं. 2010 से महिलाओं का मतदान प्रतिशत लगातार बढ़ रहा है. 2025 में महिला मतदाताओं का मतदान प्रतिशत पुरुषों की तुलना में 10 फीसदी अधिक था और नतीजों से पता चलता है कि वे नीतीश की सबसे बड़ी समर्थक बनी हुई हैं.
दरअसल, 2005 में जब से नीतीश ने राज्य की कमान संभाली है, उन्होंने महिलाओं को एक अलग वोट बैंक के रूप में विकसित किया है – स्कूली लड़कियों के लिए मुफ्त साइकिल जैसी कई नीतियों को लागू करने से लेकर शराबबंदी कानून लाने तक, की स्कीम चलाई है.
इस बार 10 हजारी योजना या महिला रोजागार योजना, जिसके तहत महिला उद्यमी 10,000 रुपये प्राप्त करने की पात्र हैं, ने उन्हें एनडीए के लिए बड़े पैमाने पर वोट देने के लिए प्रेरित किया. इसके पूरक के रूप में महिला उद्यमिता को बढ़ावा देने के लिए ‘लखपति दीदी’ कार्यक्रम भी शुरू किया गया.
इससे पता चला है कि बिहार के राजनीतिक नैरेटिव में ‘M’ अब मुसलमानों या धर्म के बारे में नहीं, बल्कि महिला शक्ति के बारे में है. प्रचार के दौरान, कई एनडीए नेताओं ने इस मुकाबले को ’10 हजारी चुनाव’ और कट्टा सरकार’ (महिलाओं के लिए 10,000 रुपये की रियायत और एक अराजक सरकार के बीच मुकाबला, राजद की ओर इशारा करते हुए) के बीच बताया.
नीतीश फैक्टर
एनडीए की बढ़त को बढ़ावा देने वाला तीसरा कारक स्वयं नीतीश कुमार हैं, जिनकी ‘सुशासन बाबू’ और भ्रष्टाचार-मुक्त छवि गठबंधन की सबसे बड़ी ताकत बन गई. 74 साल की उम्र में भी, नीतीश बिहार के राजनीतिक परिदृश्य में पहले से कहीं ज़्यादा प्रासंगिक बने हुए हैं और एनडीए के प्रचार अभियान का भार अपने कंधों पर उठा रहे हैं. एक रिपोर्ट के अनुसार, जेडी(यू) सुप्रीमो ने 84 रैलियों में भाग लिया, जो 39 वर्षीय तेजस्वी से सिर्फ एक कम है.
इस तरह अपने पूर्व बॉस पर उनके स्वास्थ्य को लेकर हमला करने और उनकी सरकार को ‘खटारा’ कहने की तेजस्वी की चाल उन मतदाताओं को रास नहीं आई जिन्होंने नीतीश को राज्य में घूमते देखा. इसके अलावा, सभी घरेलू उपभोक्ताओं को 125 यूनिट तक मुफ्त बिजली देना और वरिष्ठ नागरिकों के लिए वृद्धावस्था पेंशन को 400 रुपये से बढ़ाकर 1,100 रुपये करना एक बड़ा बदलाव साबित हुआ. इसने नीतीश कुमार को बिहार के ‘सुशासन बाबू’ के रूप में लोगों के बीच फिर से स्थापित कर दिया.