बादशाहों का फेवरेट है ये 235 साल पुराना दिल्ली का ज्वेलर, बहादुर शाह जफर से लेकर निजाम तक दीवाने

चांदनी चौक की गलियों में गर्मा गर्म परांठों का स्वाद और तमाम पैटर्न में कपड़ों का लुफ्त उठाते होंगे. लेकिन क्या आपको मालुम है उन्ही इलाकों में एक ऐसी ज्वेलरी दुकान है जो राजघरानों की पहली पसंद थी...

बादशाहों का फेवरेट है ये 200 साल पुराना दिल्ली का ज्वेलर, बहादुर शाह जफर से लेकर निजाम तक दीवाने Image Credit: SRHR

चमकती धूल में लिपटा एक खरा सच है जो पुरानी दिल्ली के दरीबा कलां की गलियों में आपको हर तरफ से घेर लेता है. इन गलियों में वो बाजार है जहां समय जैसे थम सा गया है. जहां अब हर कदम पर दुकानों की भीड़ है वहीं कई दशक पहले राजा-महाराजाओं और नवाबों से वास्ता रखने वाले एक खानदानी गहनों की दुकान का दबदबा हुआ करता था – ‘श्री राम हरी राम’ (SRHR). एक ऐसी दुकान जिसकी चमक ना सिर्फ उसके गहनों में है बल्कि उसकी इतिहास की गहराई में भी है. यह उस दौर की कहानी है जब गहने सिर्फ आभूषण नहीं बल्कि शाही परिवारों के आत्म-सम्मान और प्रतिष्ठा का प्रतीक होते थे.

बादशाह के विश्वासपात्र की थी ये दुकान

SRHR की कहानी की शुरुआत साल 1789 में हुई थी. इस दुकान को दिल्ली के आखिरी मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर ने अपने विश्वासपात्र चांदी के कारीगरों के तौर पर शामिल किया था. तब चांदी के गहनों का सिर्फ एक शाही रूप हुआ करता था – हर टुकड़ा, हर गहना, शाही परिवार की औरतों के लिए खास तौर पर बनाया जाता था. मुगल काल के दौरान महिलाओं के लिए पर्दा प्रथा सख्ती से निभाई जाती थी लेकिन SRHR वो विश्वासपात्र में शामिल थे जिसके सामने शाही महिलाएं बेपर्दे खरीदारी कर सकती थीं.

उन दिनों, दरीबा की गलियों में कोई रेडिमेट गहनों की दुकान नहीं होती थी. हर चीज चाहे वो पायलों की जोड़ी हो या कमरबंद या फिर दुल्हनों के बालों में सजने वाली चोटी, सब कुछ हाथ से बनाया जाता था. श्री राम हरी राम वो नाम बन चुका जब अगर आज भी किसी को शाही परिवार के गहनों की जरूरत हो तो वे आंख बंद करके इस दुकान का चुनता है. मौजूदा वक्त में इस दुकान को आठवीं पीढ़ी चला रही है.

वक्त बदला, लेकिन नहीं बदले उसूल

जैसे-जैसे फैशन बदलता गया SRHR ने भी अपने काम में बदलाव किए, शुद्ध चांदी के आभूषणों में बेशकीमती पत्थरों को जोड़ा, सोने के साथ भी कई प्रयोग किए. लेकिन जो नहीं बदला वह था SRHR के उसूल. आज भी, ये खानदानी दुकान अपने बनाए हुए पुराने गहनों को बिना ‘खरीद के सबूत’ दिए वापस खरीदने का वादा निभाती है. आज के आधुनिक जौहरियों की तरह ये लोग अपने चेहरे होर्डिंग्स पर लगाने में यकीन नहीं रखते. उनका मानना है कि उनकी खामोशी में ही उनकी खासियत है.

निजाम और ‘पच्चीकम’ की कहानी

1960 के दशक में, एक घटना ने SRHR को शाही परंपरा का अभिन्न हिस्सा बना दिया. हैदराबाद के निजाम ने श्री बृजमोहन गुप्ता, जो उस समय के SRHR के मुखिया थे को बुलावा भेजा. निजाम के बुलावे पर बृजमोहन ट्रेन से हैदराबाद पहुंचे. वहां पहुंचते ही निजाम ने उनसे 18वीं शताब्दी की अपनी एक बेशकीमती ‘पच्चीकम’ हार खरीदने का आग्रह किया.

इस भारी हार में विशाल पन्ने, हीरे और मोती जड़े हुए थे जिसे आमतौर पर शासक सार्वजनिक दरबार में पहनते थे.निजाम के सामने अपने दायित्व को निभाने के लिए बृजमोहन ने हामी भर दी. इस महंगी हार की कीमत चुकाने के लिए बृजमोहन हैदराबाद में रुके और उस भारी रकम का इंतजाम किया.

पैसा इकट्ठा करने के बाद उन्होंने राजा से ‘पच्चीकम’ खरीद ली. लेकिन इतना मंहगा हार के साथ यात्रा करना खतरे से खाली नहीं था. हार को दिल्ली लाने के लिए उन्होंने उसे अपनी गर्दन में पहन लिया और उसके ऊपर तीन बनियानें पहनीं ताकि किसी को अंदाजा न हो.

परोपकार में आगे

SRHR के लिए जौहर का काम सिर्फ एक व्यवसाय नहीं था बल्कि समाज सेवा और कारीगरी का एक उच्चतर रूप था. जौहरियों के लिए खुद की पहचान का मतलब होता था मंदिरों में सेवा, धार्मिक कार्यों में योगदान और समाज की भलाई. बृजमोहन गुप्ता न सिर्फ एक कुशल जौहरी थे बल्कि एक श्रद्धालु भी थे. वह हर रोज सुबह यमुना नदी में स्नान के बाद नीली छत्री मंदिर जाते थे वहां की मूर्तियों को उन्होंने चांदी के परतों से ढक दिया. इसके बाद मुर्तियों को चांदी से ढंकने का आईडिया तमाम जौहरी भी अपनाने लगे.

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इंदिरा गांधी और स्वर्ण नियंत्रण अधिनियम

1968 में जब प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने स्वर्ण नियंत्रण अधिनियम लागू किया जिससे सोने पर सख्त नियंत्रण लगाया गया तब SRHR के बृजमोहन ने इसके खिलाफ आवाज उठाई. यह साहसिक कदम था, क्यूंकि उस समय प्रधानमंत्री से टकराव लेना आसान नहीं था.

कुछ महीनों बाद बिहार के सीतामढ़ी में भयंकर बाढ़ आई. इस विपत्ति के समय बृजमोहन ने इतना अनाज, कंबल और तंबू इकट्ठा किया कि एक पूरी ट्रेन राहत सामग्री से भर गई. इंदिरा गांधी ने यह सुनकर रेलवे को आदेश दिया कि वह बिना किसी शुल्क और बिना रुके ट्रेन को बिहार तक पहुंचाया जाए. इस घटना के बाद सरकार और पुरानी दिल्ली के जौहरियों के बीच रिश्ते फिर से बेहतर हो गए.