India-US LPG Deal: कीमत और केमिस्ट्री का अनोखा मेल… क्या भारत में रसोई गैस सस्ता कर देगी अमेरिकी एलपीजी?
केंद्रीय पेट्रोलियम मंत्री हरदीप सिंह पुरी ने एक संरचनात्मक बदलाव का संकेत दिया. इससे भारतीय रसोई गैस की ओर एक बार फिर से ध्यान आकर्षित हुआ है और सवाल घूम गया है कि क्या अमेरिका की एलपीजी गैस वास्तव में देश में रसोई गैस को सस्ता बना देगी?
स्टोव के बर्नर पर लाइटर रखकर जैसे ही हम दबाते हैं, एक चिंगारी निकलती है और बर्नर नीली लौ से घिर जाता है. देश के 30 करोड़ से अधिक परिवार हर रोज खाना पकाने के लिए अपने घरों में रसोई गैस जलाते हैं. किचन में एक सिलेंडर से स्टोव तक पहुंचती गैस का दुनिया में बाजार विशाल है. यह मार्केट इतना बड़ा है कि भारत अब चीन के बाद दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा उपभोक्ता बन गया है. फिर भी दशकों तक, उस नीली लौ की कीमत प्रभावी रूप से हजारों किलोमीटर दूर मिडिल ईस्ट में तय होती रही, जहां से भारत का लगभग 90 फीसदी एलपीजी आयात होता है. जहां एक मानक, सऊदी कॉन्ट्रैक्ट प्राइस (CP) हर सिलेंडर की कीमत चुपचाप तय करता था. लंबे समय से चली आ रही यह पकड़ आखिरकार अब ढीली पड़ने लगी है.
17 नवंबर को केंद्रीय पेट्रोलियम मंत्री हरदीप सिंह पुरी ने एक संरचनात्मक बदलाव का संकेत दिया, क्योंकि आईओसीएल, बीपीसीएल और एचपीसीएल अमेरिका से सालाना 22 लाख टन एलपीजी आयात करने की ओर अग्रसर होंगे, जो भारत के वार्षिक एलपीजी आयात का लगभग 10 फीसदी है. अमेरिका द्वारा सालाना रिकॉर्ड 6 करोड़ से 7 करोड़ टन एलपीजी निर्यात के साथ, कीमतें मिडिल ईस्ट की सप्लाई से लगातार कम होती जा रही हैं. इससे भारतीय रसोई गैस की ओर एक बार फिर से ध्यान आकर्षित हुआ है और सवाल घूम गया है कि क्या अमेरिका की एलपीजी गैस वास्तव में देश में रसोई गैस को सस्ता बना देगी?
भारत की चुनौतियां
वर्षों से सऊदी अरब का एलपीजी सिर्फ एक मानक ही नहीं, बल्कि एक रुकावट भी रहा है. मिडिल ईस्ट रिफाइनरी चक्रों, क्षेत्रीय तनावों और शिपिंग व्यवधानों के साथ भारत का एलपीजी बिल बढ़ता और घटता रहा. अगर लाल सागर में बाढ़ आती या रिफाइनरी मेंटेनेंस के कारण सप्लाई कम हो जाती, तो सऊदी अरब का स्टैंडर्ड बढ़ जाता और भारत के पास कोई विकल्प नहीं होता.
यह कमजोरी गणित में ही छिपी हुई थी. भारत अपनी कुल 3.1 करोड़ टन एलपीजी खपत का लगभग 65 फीसदी आयात करता है. 2024 में 2.04 करोड़ टन में से 90 फीसदी सिर्फ चार सप्लायर्स- संयुक्त अरब अमीरात, कतर, कुवैत और सऊदी अरब से आया. इस निर्भरता ने निर्यातकों को शर्तें तय करने की छूट दे दी, जिससे एक असंतुलन पैदा हुआ और भारत ने उन वर्षों में भी अस्थिरता को झेला जब वैश्विक बाजार शांत थे.
घरेलू दबाव
लेकिन इस जियो-पॉलिटिकल रस्साकशी से परे एक और भी बड़ा घरेलू दबाव छिपा है. नए पीपीएसी एलपीजी प्रोफाइल के अनुसार, भारत की पब्लिक सेक्टर की तेल कंपनियां अब 33.05 करोड़ एक्टिव घरेलू ग्राहकों को सर्विस प्रदान करती हैं और वित्त वर्ष 26 की पहली तिमाही में ही 77 लाख टन एलपीजी बेची हैं. यह पिछले वर्ष की तुलना में 8.8 फीसदी की बढ़ोतरी है. लगभग 89 फीसदी एलपीजी पैक्ड घरेलू श्रेणी में बिकती है, इसलिए वैश्विक कीमतों में कोई भी गिरावट खुदरा कीमतों के बजाय सीधे तौर पर अंडर-रिकवरी को कम करती है, क्योंकि 10.33 करोड़ प्रधानमंत्री उज्जवला योजना (PMUY) लाभार्थी सब्सिडी वाले सिलेंडरों पर निर्भर हैं.
ईटी के अनुसार, पीपीएसी रिपोर्ट यह भी दर्शाती है कि बफर वास्तव में कितना कम है. भारत में केवल 17 दिनों का एलपीजी भंडारण कवर है, और लगभग आधे टैंकेज आयात टर्मिनलों पर हैं. मिडिल ईस्ट शिपिंग रूट्स में कोई भी व्यवधान घरेलू आपूर्ति योजना को तुरंत प्रभावित करता है. अकेले पहली तिमाही में पैक्ड घरेलू खपत में 8 फीसदी की वृद्धि के साथ, सस्ता अमेरिकी एलपीजी केवल अवसरवादी खरीदारी नहीं है, बल्कि यह इस विशाल सिस्टम को अधिक गरम होने से बचाने और सब्सिडी बिलों को फिर से बढ़ने से रोकने के लिए एक प्रेशर वाल्व है.
मोंट बेल्वियू
शेल गैस के प्रोडक्शन में एक बार फिर से उछाल आया. जैसे ही अमेरिका में उत्पादन में भारी बढ़ोतरी हुई, अमेरिकी एलपीजी बेंचमार्क मोंट बेल्वियू लगातार सऊदी अरब के सीपी से काफी नीचे कारोबार करने लगा, अक्सर 60 डॉलर प्रति टन से 120 डॉलर प्रति टन तक. भारत जैसे बड़े खरीदार के लिए 20-30 डॉलर का अंतर भी सैकड़ों करोड़ रुपये की बचत है. लेकिन अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के टैरिफ युद्ध ने फिर आग में घी डालने का काम किया. चीन, जो कभी अमेरिका का सबसे बड़ा एलपीजी खरीदार था, ने जवाबी शुल्क के बाद आयात में भारी कटौती कर दी. अचानक अमेरिकी निर्यातक सरप्लस बैरल पर बैठ गए और उनके पास कहीं जाने के लिए कोई और बाजार नहीं था. मोंट बेल्वियू और भी गिर गया.
चीन ने मोड़ा मुंह
चीन, जो आमतौर पर 2 करोड़ टन 2.5 करोड़ टन प्रति वर्ष के साथ दुनिया का सबसे बड़ा एलपीजी खरीदार है, ने 2024-2025 तक अपनी पेट्रोकेमिकल सेक्टर की मंदी के कारण अपनी खरीदारी में भारी कटौती की. स्टॉक बढ़ता गया, पीडीएच मार्जिन कम होता गया और चीनी खरीदार पीछे हट गए. इससे अमेरिकी सप्लार को नए ग्राहकों की तलाश में संघर्ष करना पड़ा. चीनी मांग में गिरावट के कारण मोंट बेल्वियू और भी नीचे चला गया और शिपिंग क्षमता फ्री हो गई, जो पहले पैसिफिक रूट्स तक सीमित थी.
मिडिल ईस्ट में अस्थिरता
इस बीच, मिडिल ईस्ट का माल ढुलाई का खर्च बढ़ रहा था. ईरान-इजराइल के बीच लड़ाई और होर्मुज स्ट्रेट के आस-पास के तनाव ने युद्ध के रिस्क वाले प्रीमियम और इंश्योरेंस की लागत को तेजी से बढ़ा दिया. दुनियाभर के 20 फीसदी तेल और LPG के होर्मुज से गुजरने के साथ, रुकावट के हर खतरे ने लागत की एक और परत जोड़ दी. इस बीच पहली बार, US LPG भारत में मिडिल ईस्ट की सप्लाई से सस्ती पहुंची.
भारत ने तेजी से काम किया. उसने डिस्काउंट वाला कार्गो खरीदा और फिर 2026 से शुरू होने वाले एक साल के स्ट्रक्चर्ड कॉन्ट्रैक्ट के ज़रिए उस फायदे को लॉक करने की ओर बढ़ गया. वॉल्यूम में एक छोटा बदलाव हुआ, लेकिन लेवरेज में ये एक बड़ा बदलाव था. अब दो बेंचमार्क लागू होने के साथ, भारत की तेल मार्केटिंग कंपनियों के पास आखिरकार कीमत तय करने के विकल्प हैं. लेकिन कीमत ही एकमात्र रुकावट नहीं है. केमिस्ट्री भी मायने रखती है.
कुकिंग गैस का अनोखा मिक्स
भारत की कुकिंग गैस सिर्फ ‘गैस’ नहीं है. यह एक बहुत खास मिक्स है, और इसी मिक्स ने दशकों से दुनियाभर को इसपर निर्भर बनाया है. एलपीजी प्रोपेन और ब्यूटेन से बनती है. भारतीय घरों को ज्यादा ब्यूटेन की जरूरत होती है, क्योंकि यह गर्म मौसम में स्टेबल रहती है और खाना पकाने के लिए लगातार आग देती है. प्रोपेन वाली LPG ठंडे देशों में इस्तेमाल होती है. भारत की गर्मी में बहुत अधिक प्रेशर बनाती है. इस छोटी सी केमिकल डिटेल ने भारत के पूरे इंपोर्ट मैप को तय किया.
मिडिल ईस्ट के एलपीजी में नैचुरली ब्यूटेन होता है क्योंकि यह क्रूड ऑयल रिफाइनिंग से आता है, जहां इसके बाय-प्रोडक्ट्स में डीजल, पेट्रोल, जेट फ्यूल और ब्यूटेन-हैवी LPG शामिल हैं. हालांकि, अमेरिकी एलपीजी ज्यादार नैचुरल गैस प्रोसेसिंग से आती है, जिससे यह प्रोपेन-हैवी हो जाता है और इंडियन किचन के लिए कम मुफीद है. अब अमेरिकी एलपीजी में भारतीय रिफाइनर को प्रोपेन ब्लेंड करना पड़ेगा, जो आसानी से हो सकता है.
अब इसमें माल ढुलाई में अंतर भी जोड़ें, तो मिडिल ईस्ट ज्यादा पास है और वहां से सामान भेजना सस्ता है. लेकिन जब हम डिस्काउंट पर रूस से कच्चा तेल खरीद सकते हैं, तो फिर अमेरिका से कम कीमत पर गैस का आयात तो कर ही सकते हैं. अगर गैस की कीमत कम है, तो फिर कार्गो की कॉस्ट फिर एडजस्टेबल है.
क्या सस्ता होगा एलपीजी सिलेंडर?
इनक्रेड इक्विटीज में लीड एनालिस्ट (ऑयल एंड गैस), प्रत्यूष कमल कहते हैं, ‘नेचुरल गैस का एक्सट्रैक्शन अमेरिका में मिडिल ईस्ट से महंगा है. लेकिन चीन की खरीदारी रोकने के बाद से अमेरिका में स्टॉक बढ़ा है, जिसकी वजह से कीमतें नीचे आई हैं. इसलिए भारत को सस्ते दाम पर गैस मिल रहा है. हालांकि, वे अमेरिकी गैस की कीमतों को लेकर कहते हैं कि यह जो सिनोरियो बना है, लंबे समय के लिए नहीं है. इसमें बदलाव आएग. दूसरी बात ये है कि इस एग्रीमेंट को अमेरिकी टैरिफ के बैकग्राउंड में भी देखना चाहिए, क्योंकि राष्ट्रपति ट्रंप की लगातार कोशिश यही है कि भारत अमेरिका से एनर्जी की खरीदारी करे.
अमेरिका के साथ हुए गैस एग्रींमेंट से क्या भारतीय कंज्यूमर्स को सस्ती रसोई गैस मिल सकती है? इस सवाल के जवाब में प्रत्यूष कमल कहते हैं कि देखिए फिलहाल तो कीमत कम होने की कोई उम्मीद ही नहीं है. क्योंकि तेल कंपनियां पहले से ही कॉस्ट से कम कीमत पर रिटेल को एलपीजी बेच रही हैं. दूसरी तरफ सरकारी ऑयल मर्केटिंग कंपनियां (OMC), एचपीसीएल, बीपीसीएल और इंडियन ऑयल कॉर्पोरेशन ईंधन की कीमतों में स्थिरता के कारण हुए नुकसान की भरपाई के लिए 50,000 करोड़ रुपये तक की रिकवरी की मांग कर रही हैं. ऐसे में कीमतों में गिरावट मुश्किल है.
एक चीज और है. रूस से भारत ने सस्ते दामों पर भारी मात्रा में तेल का आयात किया, लेकिन डिस्काउंटेड कीमतों का फायदा आम लोगों तक नहीं पहुंचा. गैस के मामले में भी ऐसा देखने को मिल सकता है.
रणनीतिक बदलाव
देश में 1.5 अरब लोगों के देश के लिए, जहां एलपीजी गैस एक राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक लाइफ लाइन है. एक ही इलाके और एक ही बेंचमार्क से हटकर नई दिशा की तरफ अग्रसर है, तो यह एक ऐतिहासिक बदलाव है. जाहिर सी बात है आम आदमी की जेब तक इसका फायदा फिलहाल पहुंचता नजर नहीं आ आ रहा है, लेकिन पहली बार भारत एक बेहतर विकल्प के पक्ष में दिख रहा है. अमेरिका के साथ हुई एलपीजी डील को भारत के एनर्जी इंपोर्ट की रणनीति में बड़े बदलाव की नजर से भी देखा जा सकता है.