बिना शोर, बिना शोहरत… रफ्ता-रफ्ता डिफेंस सेक्टर की रीढ़ बनी ये कंपनी, मिसाइल को बनाती है हाईटेक, आपके वॉचलिस्ट में है स्टॉक?
भारत की रक्षा ताकत सिर्फ बड़े हथियारों से नहीं बनती, बल्कि उन अदृश्य तकनीकों से भी बनती है जो हर सिस्टम के भीतर काम करती हैं. एक ऐसी भारतीय कंपनी है, जिसकी इंजीनियरिंग खामोशी से रडार, मिसाइल और अंतरिक्ष प्रणालियों को ज्यादा सटीक और भरोसेमंद बना रही है.
सुबह के शुरुआती घंटों में अगर कोई हैदराबाद में स्थित Astra Microwave Products Ltd के कैंपस में कदम रखे, तो उसे वहां किसी भारी मशीन की आवाज सुनाई नहीं देगी. न कोई तेज शोर, न धुआं, न ही प्रोडेक्शन लाइन की चहल-पहल. इसके बजाय वहां एक गहरी, लगभग सम्मोहित कर देने वाली खामोशी मिलेगी. यह वही खामोशी होती है, जहां काम इतना संवेदनशील होता है कि शोर की कोई गुंजाइश नहीं होती. सफेद रोशनी से जगमगाते क्लीन रूम्स के भीतर इंजीनियर कांच की दीवारों के पीछे बैठे होते हैं और बेहद छोटे माइक्रोवेव कंपोनेंट्स पर काम कर रहे होते हैं, इतने छोटे कि वे सर्किट बोर्ड के किनारे लगभग आंखों से ओझल हो जाते हैं.
यही छोटे-छोटे कंपोनेंट्स आगे चलकर भारत के रडार सिस्टम, मिसाइल सीकर्स, सैटेलाइट पेलोड और इलेक्ट्रॉनिक वॉरफेयर सिस्टम्स की “आंख” और “कान” बनते हैं. लेकिन दिलचस्प बात यह है कि इन सबके बावजूद एस्ट्रा माइक्रोवेव का नाम आम चर्चा में बहुत कम आता है. हम ब्रह्मोस, आकाश या तेजस जैसे प्लेटफॉर्म्स के बारे में खूब सुनते हैं, लेकिन बहुत कम लोग जानते हैं कि इन सभी के भीतर काम करने वाले अहम इलेक्ट्रॉनिक सिस्टम्स में एस्ट्रा माइक्रोवेव की तकनीक छुपी हुई है.
वह कंपनी जो दिखती नहीं, लेकिन हर जगह मौजूद है
भारत के रक्षा क्षेत्र में आमतौर पर बड़े सार्वजनिक उपक्रमों को श्रेय मिलता है. वहीं एस्ट्रा माइक्रोवेव की भूमिका बिल्कुल अलग है. यह वह विशेषज्ञ है, जो पर्दे के पीछे रहकर काम करता है, जिसे कोई देखता नहीं, लेकिन जिस पर पूरा सिस्टम निर्भर करता है. कंपनी की कहानी न तो बड़े आकार की है, न ही दिखावे की. यह कहानी है सटीकता, भरोसे और उस इंजीनियरिंग गहराई की, जो भीतर से विकसित हुई है.
जिन समस्याओं से सब बचते थे, वही एस्ट्रा का मिशन बनीं
एस्ट्रा माइक्रोवेव की शुरुआत किसी बड़े और चमकदार कॉन्ट्रैक्ट के पीछे भागने के लिए नहीं हुई थी. इसका जन्म उन तकनीकी समस्याओं को हल करने के लिए हुआ, जिनसे ज्यादातर कंपनियां दूरी बनाकर रखती थीं. 1990 के दशक के अंत और 2000 के शुरुआती वर्षों में भारत एक गंभीर कमजोरी से जूझ रहा था. रडार, सैटेलाइट और मिसाइल गाइडेंस सिस्टम्स के लिए जरूरी माइक्रोवेव सबसिस्टम्स लगभग पूरी तरह आयात पर निर्भर थे.
ये सामान्य इलेक्ट्रॉनिक पार्ट्स नहीं थे. इन्हें बेहद ऊंचे और बेहद कम तापमान, तेज कंपन, रेडिएशन और अत्यधिक हाई फ्रीक्वेंसी पर भी बिना चूके काम करना होता था. जरा सी गलती पूरे सिस्टम को बेकार बना सकती थी. बहुत कम भारतीय कंपनियों के पास इतनी धैर्यशीलता, पूंजी अनुशासन और वैज्ञानिक समझ थी कि वे इस स्तर पर काम कर सकें. एस्ट्रा माइक्रोवेव ने ठीक इसी चुनौती को अपना रास्ता चुना.
कंपनी ने बड़े पैमाने के उत्पादन की बजाय हाई-डिफिकल्टी इंजीनियरिंग पर ध्यान दिया. रेडियो फ्रीक्वेंसी सिस्टम्स, माइक्रोवेव मॉड्यूल्स, ट्रैवलिंग वेव ट्यूब एम्प्लीफायर्स, एंटीना एरेज, पावर एम्प्लीफायर्स, टेलीमेट्री सिस्टम्स और कंट्रोल इलेक्ट्रॉनिक्स,ये सभी ऐसे क्षेत्र थे जहां मिलीमीटर भर की चूक भी पूरे प्लेटफॉर्म को प्रभावित कर सकती थी.
यही “सबसे कठिन समस्या पहले हल करने” की फिलॉसफी धीरे-धीरे एस्ट्रा माइक्रोवेव की सबसे बड़ी ताकत बन गया. समय के साथ भारत के रक्षा अनुसंधान और उत्पादन तंत्र को एहसास हुआ कि इस कंपनी पर भरोसा किया जा सकता है. जब भारत के रडार, मिसाइल और सर्विलांस प्रोग्राम्स ने रफ्तार पकड़नी शुरू की, तब तक एस्ट्रा माइक्रोवेव अपनी विश्वसनीयता साबित कर चुकी थी.
बिना शोर किए बढ़ता हुआ दायरा
आज एस्ट्रा माइक्रोवेव पहले से कहीं बड़ी कंपनी है, लेकिन उसके मूल सिद्धांत अब भी वही हैं. कंपनी ने दर्जनों नए प्रोडक्ट्स जोड़ने के बजाय माइक्रोवेव और RF सिस्टम्स के एक सीमित लेकिन बेहद मूल्यवान दायरे पर फोकस बनाए रखा है. ये ऐसे सिस्टम्स हैं, जहां सप्लायर बदलना आसान नहीं होता, क्योंकि जोखिम बहुत बड़ा होता है.
यही वजह है कि एस्ट्रा माइक्रोवेव चुपचाप कई अहम प्रोग्राम्स का हिस्सा बन चुकी है. मिसाइल सीकर्स और गाइडेंस सबसिस्टम्स, बैटलफील्ड और सर्विलांस रडार, एयरबोर्न सर्विलांस और इलेक्ट्रॉनिक वॉरफेयर पॉड्स, सैटकॉम पेलोड्स, टेलीमेट्री सिस्टम्स और नौसैनिक इलेक्ट्रॉनिक वॉरफेयर प्लेटफॉर्म्स- इन सभी में कंपनी की मौजूदगी है.
एक बार जब किसी रडार या मिसाइल की आर्किटेक्चर में माइक्रोवेव सबसिस्टम फिट हो जाता है, तो वह सालों तक, कई बार पूरे लाइफ साइकिल तक वहीं बना रहता है. रक्षा प्रणालियों में कॉन्ट्रैक्टर बदलना आसान नहीं होता. सर्टिफिकेशन लंबा होता है, टेस्टिंग बेहद कठोर होती है और असफलता की कीमत बहुत महंगी पड़ सकती है.
आंकड़ों में कितनी आगे
यही “एम्बेडेड” प्रकृति कंपनी के वित्तीय चरित्र में भी दिखाई देती है. FY25 में एस्ट्रा माइक्रोवेव ने पहली बार ₹1,051 करोड़ का वार्षिक राजस्व पार किया. जैसे-जैसे निष्पादन बेहतर हुआ, ऑपरेटिंग मार्जिन में भी सुधार देखने को मिला.
Q2 FY26 में कंपनी का राजस्व ₹215 करोड़ रहा, जो साल-दर-साल आधार पर करीब 6.5 प्रतिशत कम था. इसी तिमाही में, असाधारण मदों को छोड़कर, शुद्ध मुनाफा लगभग ₹24 करोड़ रहा, जो करीब 6 प्रतिशत की गिरावट दर्शाता है. इसका मुख्य कारण यह है कि रक्षा कॉन्ट्रैक्ट्स अक्सर “लम्पी” होते हैं. यानी रेवेन्यू हर तिमाही समान रूप से नहीं आता. फिर भी मजबूत सेक्टर डिमांड के चलते नए ऑर्डर्स मिलते रहे, जिससे आगे की स्थिरता बनी हुई है.
पिछले तीन वर्षों में कंपनी का मुनाफा करीब 58 प्रतिशत की कंपाउंडिंग रेट से बढ़ा है और रिटर्न ऑन इक्विटी लगभग 14 प्रतिशत रहा है. इसी अवधि में शेयर कीमत में भी करीब 54 प्रतिशत की तेजी देखी गई. बीते शुक्रवार कंपनी के शेयर 979 रुपये पर बंद हुए. बैलेंस शीट अब भी सतर्क बनी हुई है, कर्ज सीमित है और वर्किंग कैपिटल नियंत्रित है. 30 सितंबर तक ₹1,916 करोड़ का ऑर्डर बुक भविष्य की निरंतरता का संकेत देता है.
डिफेंस नहीं, डीपटेक कंपनी के रूप में समझें
अक्सर एस्ट्रा माइक्रोवेव को एक “डिफेंस स्टॉक” के रूप में देखा जाता है. लेकिन यह लेबल कंपनी की असली पहचान को पूरी तरह नहीं दर्शाता. माइक्रोवेव इंजीनियरिंग सिर्फ रक्षा की क्षमता नहीं है, यह मूल रूप से भौतिकी और उच्च स्तरीय इंजीनियरिंग की क्षमता है.
यही फर्क कंपनी को अलग बनाता है. मिसाइल सीकर्स में इस्तेमाल होने वाली हाई-फ्रीक्वेंसी विशेषज्ञता सैटेलाइट पेलोड्स, सुरक्षित संचार प्रणालियों और अंतरिक्ष आधारित सर्विलांस में भी उतनी ही कारगर होती है. पिछले कुछ वर्षों में कंपनी ने ISRO से जुड़े कार्यक्रमों और निजी स्पेस मिशनों में अपनी भागीदारी बढ़ाई है. अंतरिक्ष-स्तरीय माइक्रोवेव सिस्टम्स में विफलता की कोई गुंजाइश नहीं होती, और एस्ट्रा माइक्रोवेव इस स्तर की तैयारी पहले से रखती है.
जैसे-जैसे भारत मैकेनिकल रडार से AESA सिस्टम्स की ओर, ट्रेडिशनल मिसाइलों से स्मार्ट सीकर्स की ओर और अलग-अलग प्लेटफॉर्म्स से नेटवर्क-सेंट्रिक वॉरफेयर की ओर बढ़ रहा है, वैसे-वैसे कंपनी की अहमियत अपने आप बढ़ती जाती है.
सटीकता की कीमत और जोखिम
माइक्रोवेव इंजीनियरिंग की दुनिया में रहना आसान नहीं है. एग्जीक्यूशन अक्सर सीधा नहीं होता. एक छोटा सा तकनीकी दोष पूरे प्लेटफॉर्म को धीमा कर सकता है. इसी वजह से कंपनी का रेवेन्यू अक्सर साल के दूसरे हिस्से में दिखाई देता है और तिमाही आंकड़े असंतुलित लग सकते हैं.
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कस्टमर कंसंट्रेशन भी एक जोखिम है. कंपनी का बड़ा हिस्सा अभी भी DRDO और कुछ चुनिंदा रक्षा OEMs से आता है. किसी एक प्रमुख प्रोग्राम में देरी शॉर्ट टर्म दबाव बना सकती है. सबसे बड़ा जोखिम प्रतिभा से जुड़ा है. माइक्रोवेव इंजीनियरिंग सिर्फ भर्ती से नहीं बढ़ती. यह वर्षों की ट्रेनिंग और अनुभव से बनती है. वरिष्ठ इंजीनियरों को बनाए रखना और नई पीढ़ी को प्रशिक्षित करना कंपनी के अस्तित्व से जुड़ा प्रश्न है.
ऐसे समय में, जब युद्ध और सुरक्षा का भविष्य सेंसर, सिग्नल की स्पष्टता और इलेक्ट्रॉनिक इंटेलिजेंस पर निर्भर करता जा रहा है, यह खामोश भूमिका भारत की रक्षा व्यवस्था में सबसे अधिक मूल्यवान साबित हो सकती है.
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