इंदिरा से लेकर वाजपेयी तक… भारत ने अमेरिका से लड़ना सीख लिया, अब मोदी की बारी; हर बार धरी रह गई चौधराहट
US Tariffs: ट्रंप का टैरिफ लगाना, प्रतिबंधों और इंपोर्ट ड्यूटी के जरिए भारत पर दबाव बनाने की अमेरिका की लंबी कोशिशों की कड़ी में सबसे ताजा हथियार है. पोखरण-I और पोखरण-II परमाणु परीक्षणों के बाद 1974 और 1998 में वाशिंगटन ने दंडात्मक प्रतिबंध लगाए थे. इतिहास गवाह है कि हर बार भारत और मजबूत होकर उभरा है.
‘हां, हमारी कार्रवाई की एक कीमत चुकानी पड़ी है, लेकिन हमें इसकी चिंता नहीं करनी चाहिए. भारत के पास संसाधनों और आंतरिक शक्ति का अपार भंडार है.’ पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने पोखरण-2 परमाणु परीक्षण से कुछ महीने पहले इंडिया टुडे पत्रिका के साथ बातचीत में यह कहा था. बात साल 1998 की है. भारत अमेरिकी प्रतिबंधों की आशंका से जूझ रहा था, लेकिन राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए परमाणु परीक्षण करने के लिए प्रतिबद्ध था. ये प्रतिबंध मई में, ‘बुद्ध फिर मुस्कुराए’ के तुरंत बाद लगाए गए थे. लेकिन भारत न केवल अमेरिकी प्रतिबंधों से बच निकला, बल्कि कई वर्षों तक आर्थिक विकास की राह पर इस कदर दौड़ा कि आज दुनिया की टॉप-5 आर्थिक शक्तियों में शुमार है.
वाजपेयी ने मार्च 1998 में कहा था, ‘प्रतिबंध हमें नुकसान नहीं पहुंचा सकते और न ही पहुंचाएंगे.’ भारत ऐसी किसी भी धमकी और दंडात्मक कदम से नहीं डरेगा. भारत को अपने अतीत के गौरव और भविष्य की दृष्टि का समर्थन हर मायने में मजबूत बनने के लिए प्राप्त है.’ इसके ठीक दो महीने बाद 11 से 13 मई के बीच, भारत ने राजस्थान के पोखरण में परमाणु परीक्षण किए.
वाजपेयी के 27 साल पुराने शब्द, आज फिर से देश की हवाओं में गूंजते हुए, हमारी ताकतों और अतीत के गौरव को याद दिला रहे हैं.
अमेरिकी टैरिफ का दूसरा दौर
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप प्रशासन द्वारा लगाए गए दंडात्मक शुल्कों का दूसरा दौर बुधवार से लागू हो गया है. रूस से तेल खरीदने के अपने संप्रभु अधिकारों के चलते भारत को अमेरिकी अमेरिकी शुल्क और दंड का सामना करना पड़ा है. नए टैरिफ से भारतीय निर्यात पर असर पड़ने की आशंका है, खासकर कम मार्जिन वाले, श्रम-प्रधान क्षेत्रों जैसे टेक्सटाइल्स, आभूषण और मत्स्य पालन के कारोबार पर गहरी मार पड़ सकती है.
ट्रंप का टैरिफ लगाना, प्रतिबंधों और इंपोर्ट ड्यूटी के जरिए भारत पर दबाव बनाने की अमेरिका की लंबी कोशिशों की कड़ी में सबसे ताजा हथियार है. पोखरण-I और पोखरण-II परमाणु परीक्षणों के बाद 1974 और 1998 में वाशिंगटन ने दंडात्मक प्रतिबंध लगाए थे और ट्रंप के पहले कार्यकाल में 2018-19 में ऊंचे टैरिफ लगाए थे.
हालांकि, इतिहास गवाह है कि हर बार भारत और मजबूत होकर उभरा है. लेकिन ऐसा नहीं है कि अमेरिकी प्रतिबंधों से नुकसान नहीं हुआ है, शॉर्ट टर्म में नुकसान क्षति झेलनी पड़ी है, लेकिन लॉन्ग टर्म में प्रभाव सीमित ही रहा है. प्रतिबंधों के बावजूद हर बार अमेरिका के साथ व्यापार जारी रहा है, राजनयिक रास्ते खुले रहे हैं, और अंततः संबंधों में सुधार हुआ है.
पहले परमाणु परीक्षण के बाद अमेरिकी प्रतिबंध
भारत ने 18 मई 1974 को राजस्थान के पोखरण में पहला परमाणु परीक्षण किया था. इसके बाद अमेरिका ने प्रतिबंधों की खेप भारत की तरफ रवाना कर दिया था. लेकिन भारत डटा रहा. देश की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने प्रतिबंधों को स्वीकार नहीं किया. अमेरिकी सरकार ने भारत के पहले परमाणु परीक्षण के बाद, टेक्नोलॉजी ट्रांसफर और न्यूक्लियर सप्लाई को लेकर सख्त प्रतिबंध लगाए. अमेरिका ने ‘न्यूक्लियर सप्लायर्स ग्रुप’ (NSG) बनाने में अहम भूमिका निभाई ताकि भारत जैसे देशों को परमाणु तकनीक से दूर रखा जा सके. लेकिन तमाम प्रतिबंधों और दबाव के बावजूद भारत अपने परमाणु कार्यक्रम से पीछे नहीं हटा और इसे जारी रखा.
1998 में अमेरिका ने भारत पर कैसे कड़े प्रतिबंध लगाए?
सभी प्रमुख प्रतिबंधों और शुल्कों में से सबसे कठोर प्रतिबंध 1998 में लगाया गया था, जब वाजपेयी प्रधानमंत्री थे. भारत को मदद में कटौती, इंटरनेशनल कर्ज पर अमेरिका के विरोध और टेक्नोलॉजी ट्रांसफर पर प्रतिबंधों का सामना करना पड़ा था. 1998 के प्रतिबंध आर्थिक, सैन्य और तकनीकी प्रतिबंधों पर केंद्रित थे.
ये प्रतिबंध संभवतः अब तक के सबसे कठोर प्रतिबंध थे, क्योंकि अमेरिका भारत को परमाणु शक्ति बनने से रोकने के लिए दृढ़ था और इसका मुख्य कारण शीत युद्ध के दौर में भारत के प्रति संदेह था, जिसने सोवियत संघ के साथ घनिष्ठ संबंध बनाए रखे थे.
वास्तव में 1974 में लगाया गया परमाणु सहयोग का निलंबन 2008 के ऐतिहासिक भारत-अमेरिका परमाणु समझौते तक जारी रहा. जब भारत ने 1998 में परमाणु परीक्षण किए, तो अमेरिका ने और भी कड़े कदम उठाए. लेकिन कुछ ही वर्षों में अमेरिका-भारत संबंध न केवल पटरी पर लौट आए, बल्कि एक रणनीतिक साझेदारी की ओर भी बढ़ने लगे.
अमेरिकी प्रतिबंधों का भारत पर असर
अमेरिकी प्रतिबंधों में मानवीय और खाद्य सहायता को छोड़कर सभी अमेरिकी विदेशी सहायता को समाप्त करना शामिल था. आधिकारिक अमेरिकी सरकारी आंकड़ों के अनुसार, इससे आर्थिक विकास सहायता में लगभग 2.1 करोड़ डॉलर और ग्रीनहाउस गैस चरणबद्ध उन्मूलन कार्यक्रम के लिए निर्धारित 60 लाख डॉलर की राशि बंद हो गई.
अमेरिका ने विश्व बैंक और इंटरनेशनल मॉनिटरी फंड जैसी वैश्विक संस्थाओं से कर्ज लेने का भी विरोध किया, जिससे भारत के इंफ्रास्ट्रक्चर और विकास परियोजनाओं के लिए 3-4 अरब डॉलर के फंड की राह में रोड़ा अटक गया.
इसके अतिरिक्त, प्रतिबंधों ने डिफेंस हार्डवेयर, सर्विसेड और विदेशी सैन्य फाइनेंसिंग की बिक्री को निलंबित कर दिया. इसका सीधा असर संभावित हथियार सौदों और सहयोग पर पड़ा. यह महत्वपूर्ण था, क्योंकि एक साल से भी कम समय बाद, 1999 में भारत को पाकिस्तान के साथ युद्ध के लिए मजबूर होना पड़ा, जिसके लिए रक्षा उपकरण, फंड और वैश्विक समर्थन की आवश्यकता थी.
कैसे पिघली बर्फ?
हालांकि, प्रतिबंधों के चरम पर भी एक नरमी के संकेत तब दिखाई दिए, जब तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने सार्वजनिक रूप से पाकिस्तान पर एक व्यापक युद्ध का जोखिम उठाने का आरोप लगाया. यह पहली बार था जब अमेरिकी सरकार ने किसी संघर्ष के दौरान पाकिस्तान के खिलाफ भारत का खुलकर पक्ष लिया था.
प्रतिबंधों ने शॉर्ट टर्म आर्थिक और कूटनीतिक बाधाएं जरूर पैदा कीं, लेकिन उनका लॉन्ग टर्म प्रभाव सीमित रहा. 1991 के उदारीकरण से प्रेरित भारत की अर्थव्यवस्था अपेक्षाकृत लचीली साबित हुई और अमेरिकी प्रतिबंधों से सुरक्षित रही. हालांकि, इंटरनेशनल कर्ज में देरी के चलते इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट्स पर असर पड़ा, जिससे अस्थायी मंदी आई और 1998 में भारत के अमेरिकी निर्यात में थोड़ी गिरावट आई. लेकिन द्विपक्षीय व्यापार पर कभी व्यापक प्रतिबंध नहीं लगाया गया, क्योंकि 1990 के दशक में विभिन्न कारणों से राजनयिक रास्ते खुले रहे, जिनमें अमेरिका द्वारा अलग-अलग वस्तुओं पर लगाए गए शुल्कों पर बातचीत भी शामिल थी.
अमेरिकी प्रतिबंधों के बीच भारत और मजबूत हुआ
भारत की यह वापसी घरेलू सुधारों, कूटनीतिक जुड़ाव और प्रतिबंधों में लगातार छूट के कारण हुई. वास्तव में, प्रतिबंधों ने आत्मनिर्भरता और मजबूत वैश्विक संबंधों के लिए उत्प्रेरक का काम किया. औपचारिक मेक इन इंडिया कार्यक्रम से बहुत पहले, भारत ने 1990 के दशक तक दशकों पुरानी संस्थागत अनुसंधान एवं विकास क्षमता, अनुसंधान संगठन और एक औद्योगिक आधार तैयार कर लिया था. 1990 के दशक के अंत तक, उदारीकरण ने इस नींव को और भी मजबूत किया, जिसने 2000 तक नॉन-अमेरिकी प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (FDI) सहित 10 अरब डॉलर का प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (FDI) आकर्षित किया. नतीजतन, भारत ने अपनी आयात निर्भरता कम की और स्वदेशी परमाणु एवं रक्षा प्रौद्योगिकियों को बढ़ावा दिया.
व्यापारिक साझेदारों में डायवर्सिफिकेशन
1990 के दशक के मध्य में बाजार सुधारों के कारण ग्रॉस डोमेस्टिक प्रोडक्ट्स (GDP) की वृद्धि दर औसतन लगभग 6.5 फीसदी थी और प्रतिबंध लगाए जाने तक, अर्थव्यवस्था लगभग 5.8 फीसदी पर स्थिर थी. अमेरिकी प्रतिबंधों के केवल 5 वर्ष बाद, 2003 तक भारत की जीडीपी सालाना 7.8 फीसदी की दर से बढ़ रही थी.
अमेरिका ने मशीनरी निर्यात करते हुए अरबों डॉलर मूल्य के टेक्सटाइल्स और रत्नों का आयात जारी रखा. यूरोपीय संघ ने निर्यातित औद्योगिक उपकरणों के बदले टेक्सटाइल्स, चमड़ा और केमिकल आयात किए. रूस ने रक्षा हार्डवेयर की सप्लाई की और भारतीय दवाइयां और चाय खरीदी. संयुक्त अरब अमीरात और सऊदी अरब ने रत्न और चावल आयात करते हुए तेल का निर्यात किया. जापान और चीन भी इलेक्ट्रॉनिक्स, टेक्सटाइल्स और केमिकल का व्यापार करते हुए सक्रिय साझेदार बने रहे. प्रतिबंधों ने सिर्फ बाजार ही नहीं, बल्कि थोरियम-आधारित रिएक्टरों में आत्मनिर्भरता को भी बढ़ावा दिया. भारत के विश्व के साथ व्यापारिक संबंध मजबूत बने रहे.
परमाणु शक्ति के रूप में मिली मान्यता
कूटनीतिक रूप से, प्रतिबंधों ने अमेरिका को अपने दृष्टिकोण का पुनर्मूल्यांकन करने के लिए प्रेरित किया, जिसके बाद अंततः भारत को एक परमाणु शक्ति के रूप में मान्यता मिली और 2008 के ऐतिहासिक परमाणु समझौते का रास्ता तैयार हुआ.
संबंधों में मधुरता तब शुरू हुई जब 2000 में राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने भारत का दौरा किया. साल 1978 में जिमी कार्टर के बाद, 22 वर्षों में किसी अमेरिकी राष्ट्रपति की यह पहली यात्रा थी. क्लिंटन की यात्रा में नई दिल्ली, हैदराबाद और मुंबई तथा ग्रामीण स्थानों पर भी रुकना शामिल था. यह एक महत्वपूर्ण यात्रा थी तथा इसने प्रतिबंधों के बाद अमेरिका-भारत संबंधों में पुनः सुधार का संकेत दिया.
बुश के शासनकाल में संबंधों में और प्रगाढ़ता आई
जब 2001 में जॉर्ज डब्ल्यू बुश ने पदभार संभाला, तो भारत-अमेरिका संबंध काउंटर टेररिज्म, चीन के उदय को संतुलित करने और भारत की आर्थिक क्षमता को मान्यता देने में साझा हितों से प्रेरित होकर एक रणनीतिक साझेदारी में तब्दील हो गए.
सितंबर 2001 में बुश ने 1998 के शेष प्रतिबंधों को हटा दिया, जिससे आर्थिक और सैन्य सहायता के द्वार खुल गए. 9/11 के बाद, आतंकवाद के खिलाफ वैश्विक लड़ाई में भारत के समर्थन ने इस साझेदारी को और मजबूत किया. जुलाई 2005 में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह द्वारा शुरू किए गए इस समझौते ने अमेरिका को भारत को परमाणु तकनीक बेचने की अनुमति दी, जिससे दशकों का अलगाव प्रभावी रूप से समाप्त हो गया. बुश ने मार्च 2006 में भारत का दौरा किया. 2008 में परमाणु समझौते पर हस्ताक्षर होने के बाद, संयुक्त अभ्यास और हथियारों के व्यापार के जरिए रक्षा सहयोग का विस्तार हुआ, जो रक्षा सहयोग का एक हिस्सा था.
अमिताभ कांत ने कहा- बड़े सुधारों को लागू करने का मौका
नीति आयोग के पूर्व सीईओ और G20 शेरपा अमिताभ कांत ने कहा कि भारत को इस अवसर का उपयोग बड़े सुधारों को लागू करने और अपने निर्यात बाजारों में विविधता लाने के लिए करना चाहिए. भारत ने कई मौकों पर वैश्विक दबाव के आगे झुकने से इनकार किया है. यह समय भी कुछ अलग नहीं होना चाहिए. हमें डराने के बजाय, इन वैश्विक चुनौतियों को भारत को पीढ़ी दर पीढ़ी होने वाले साहसिक सुधारों के लिए प्रेरित करना चाहिए, साथ ही लॉर्न्ग टर्म ग्रोथ और फ्लेक्सिबलिटी को सुरक्षित करने के लिए हमारे निर्यात बाजारों में विविधता लानी चाहिए. अमिताभ कांत ने X पर पोस्ट में यह बात कही. कांत भी उसी रास्ते की तरफ संकेत कर रहे हैं, जो 1998 में लगे प्रतिबंध के बाद भारत ने उठाए थे.
पीएम मोदी का सख्त रवैया
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अमेरिकी टैरिफ के खिलाफ अपना सख्त रूख साफ कर दिया है. उन्होंने साफ कर दिया है कि अमेरिकी दबाव के सामने भारत झुकेगा नहीं. पीएम ने लोगों को स्वदेशी की तरफ लौटने का आग्रह किया है. स्वतंत्रता दिवस समारोह के दौरान दिल्ली के लाल किले की प्राचीर से चमकीली केसरिया पगड़ी पहने और दर्शकों की भीड़ को संबोधित करते हुए, पीएम मोदी ने छोटे दुकानदारों और व्यवसायों से अपनी दुकानों के बाहर स्वदेशी या मेड इन इंडिया के बोर्ड लगाने का भी आग्रह किया था. उन्होंने कहा- ‘हमें आत्मनिर्भर बनना चाहिए- हताशा से नहीं, बल्कि गर्व से. आर्थिक स्वार्थ दुनिया भर में बढ़ रहा है और हमें अपनी कठिनाइयों का रोना नहीं रोना चाहिए, हमें इससे ऊपर उठना चाहिए और दूसरों के चुंगल में खुद को नहीं फंसने देना चाहिए.’
27 अगस्त को टैरिफ लागू होने तक, भारत 40 देशों को कपड़ा निर्यात आउटरीच कार्यक्रम की योजना बना चुका था. अतीत में भी, भारत ने अपने बाजारों में विविधता लाकर और स्वदेशी उत्पादन को बढ़ावा देकर प्रतिबंधों और टैरिफ का मुकाबला किया है.