बापू के सामने ट्रंप लगाते टैरिफ, क्या करते महात्मा गांधी…
बैलेंस शीट से संबंध तय करने के दौर में महात्मा गांधी कहीं ज्यादा प्रासंगिक हो जाते हैं. क्योंकि जिस तरह अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने टैरिफ के जरिए संरक्षणवाद की नीति अपना रखी है. ऐसे में 1930 और 1940 का वह खतरनाक दौर फिर उभर के सामने आ रहा है.
Mahatma Gandhi Jayanti And His Economic Model: अजीब सी बात है कि आज हम बापू के 156वीं जयंती पर ट्रंप से उनका सामना करा रहे हैं. असल में एक ऐसा दौर जब अमेरिका का राष्ट्रपति दो देशों के संबंधों को सिर्फ बैलेंस शीट की नजर से देख रहा हो. तो महात्मा गांधी कहीं ज्यादा प्रासंगिक हो जाते हैं. क्योंकि इस समय ना केवल भारत बल्कि दुनिया को इस टैरिफ वॉर से निपटने के लिए स्वदेशी का मंत्र ही याद आ रहा है.
जिस तरह अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने टैरिफ के जरिए संरक्षणवाद की नीति अपना रखी है. ऐसे में 1930 और 1940 का वह दौर फिर उभर के सामने आ रहा है, जब अमेरिका और ब्रिटेन ने संरक्षणवाद की रणनीति अपनाई थी. और इसका आलम यह हुआ था कि भारत जैसे देश दुनिया में अपना आधिपत्य खो गुलामी की जंजीरों में जकड़ गए थे. उस वक्त इस संरक्षणवाद और टैरिफ की लड़ाई में भारत में महात्मा गांधी ने अपने आर्थिक मॉडल से उम्मीद की किरण दिखाई थी. ऐसे में आज, जब भारत कहीं ज्यादा सशक्त और आत्मनिर्भर है तो यह सवाल उठता है कि अगर आज के दौर में महात्मा गांधी और ट्रंप आमने-सामने होते तो क्या होता. तो इस परिदृश्य को समझने से पहले आइए जानते हैं कि बापू के दौर में टैरिफ का खेल कैसे चल रहा था..
अमेरिका और ब्रिटेन कर रहे थे टैरिफ और संरक्षणवाद का खेल
महात्मा गांधी के समय पश्चिमी शक्तियों का संरक्षणवाद एक अलग खेल कर रही थीं. खासतौर से ब्रिटेन अपने उपनिवेश यानी गुलाम भारत को कच्चे माल का स्रोत और तैयार वस्तुओं का उपभोक्ता बनाने की रणनीति पर काम कर रहा था. जैसे वह भारत से कपास, नील और जूट सस्ते दामों पर ब्रिटेन भेजता और वही कच्चा माल मैनचेस्टर की मिलों में तैयार कपड़े में बदलकर भारत में ऊंचे दामों पर बेचता था. इसका असर यह हुआ भारतीय कारीगर बेरोजगार हुए और ब्रिटिश उद्योगपतियों और सरकार का खजाना भरता गया. यह एकतरफा मुक्त व्यापार था. औपनिवेशिक देशों के लिए खुला बाजार, लेकिन ब्रिटेन के उद्योग को संरक्षण. जिससे ब्रिटिश उद्योगपतियों को सुरक्षित बाजार मिला और भारतीय उद्योग धंधे चौपट हो गए. इस दौर में ब्रिटेन और अमेरिका अपनी इंडस्ट्री को बचाने के लिए वैश्विक व्यापार नियम बेशरमी से तोड़ रहे थे.
ऐसे में जब ग्लोबल मंदी ने दस्तक दी तो अमेरिका ने घरेलू उद्योगों की रक्षा के लिए 1930 में Smoot-Hawley Tariff Act लागू कर दिया. जिसमें आयातित वस्तुओं पर भारी टैरिफ लगाया गया. इस नीति ने वैश्विक व्यापार में गिरावट और आर्थिक मंदी को गहरा दिया. अमेरिका ने विदेशी सामान (विशेषकर यूरोप और एशिया से) पर टैरिफ 60 फीसदी तक बढ़ा दिया. इसका असर यह हुआ कि यूरोप और कनाडा ने अमेरिका पर पलटवार करते हुए अमेरिकी सामान पर टैरिफ बढ़ा दिए. जिसकी वजह से ग्लोबल ट्रेड 40 फीसदी तक गिर गया और मंदी (Great Depression) गहरा गई.
उस वक्त गांधी क्या कर रहे थे?
ब्रिटेन के संरक्षणवाद के कदम को गांधी ने शोषण बताया. उन्होंने कहा कि भारत का कारीगर बेरोजगार हो रहा है और ब्रिटिश मिल मालिक अमीर हो रहे हैं. गांधी ने इसे शोषणकारी और असमानतापूर्ण आर्थिक नीति कहा और इसका विरोध स्वदेशी आंदोलन के माध्यम से किया. जिसमें चरखा और खादी उनके आर्थिक स्वतंत्रता के प्रतीक बने. इसके अलावा विदेशी कपड़ों का बहिष्कार पूरे देश का आंदोलन बना.
उन्होंने पश्चिमी पूंजीवाद के मॉडल की सच्चाई खोलते हुए कहा कि यह अपने मुनाफे के लिए ही नियम बनाता और तोड़ता है. पश्चिम की आर्थिक नीति केवल ज्यादा से ज्यादा प्रॉफिट कमाने और इंडस्ट्रलिस्ट को बचाने पर फोकस करती है. यह नीति गरीबों, किसानों और उपनिवेशों को तबाह करती है. इसलिए इसका समाधान केवल लोकल प्रोडक्शन और नैतिक अर्थशास्त्र है.
ट्रंप फिर वही खेल कर रहे हैं
आज ट्रंप भी ग्लोबल फ्री-ट्रेड के खिलाफ जाकर अपने उद्योग को बचाने के लिए टैरिफ का हथियार चला रहे हैं. अमेरिका फर्स्ट नीति के तहत वह अब तक इलेक्ट्रॉनिक्स (स्मार्टफोन, लैपटॉप, कंप्यूटर पार्ट्स) खिलौने, कपड़े, जूते स्टील और एल्युमिनियम, दवाओं से लेकर भारत सहित विभिन्न देशों के आयात पर 10 से 50 फीसदी तक टैरिफ लगा चुके है. इससे दुनिया के सभी प्रमुख देश चपेट में हैं. ट्रंप अंतरराष्ट्रीय संबंधों को सिर्फ बैलेंस शीट के नजरिये से देख रहे है, जिसमें सहयोगी और प्रतिद्वंद्वी सभी को प्रॉफिट और नुकसान में बांध दिया गया है. गांधी ने ऐसे खतरों को पहले ही देख लिया था.
गांधी का रास्ता क्या है?
गांधी का मानना था कि प्रतिष्ठा दबदबे या प्रतिशोध से नहीं, बल्कि नैतिक साहस और सत्य पर टिके नेतृत्व से आती है. भारत की विदेश नीति के लिए गांधी का सिद्धांत ही सबसे बड़ा औजार हैं यानी शांत, दृढ़ और शाश्वत रहकर ही टैरिफ चुनौती से निपटा जा सकता है.
उनका मॉडल ज्यादा से ज्यादा लाभ पर आधारित नहीं था, बल्कि समानता, न्याय और नैतिकता पर आधारित था. इस मॉडल में गरीब और श्रम का सम्मान करना और संसाधनों का संतुलित इस्तेमाल प्राथमिकता थी. इसके साथ ही गांवों को आत्मनिर्भर बनाना था. जो कि स्वदेशी के मूल मंत्र पर आधारित था. ऐसे में 2 अक्टूबर को जब देश राजघाट और साबरमती पर गांधीजी को याद करता है तो हमें यह सोचना चाहिए कि गांधी का मॉडल सिर्फ अतीत की बातें नहीं है बल्कि वह आज के दौर में भी फिट बैठता है.