88 के पार रुपया ढहा, डॉलर में तेजी जारी, इस असंतुलन से भारत में कौन कमा रहा मुनाफा, किस पर आफत?
डॉलर के मुकाबले रुपया 88 के ऊपर टिकते ही बाजार में हलचल तेज है. टैरिफ, एफपीआई, आउटफ्लो और बॉन्ड यील्ड के बीच कुछ सेक्टर चुपचाप बढ़त बना रहे हैं. कौन है वो सेक्टर और कैसे एक्सपोर्टर को इस असंतुलन से मुनाफा हो रहा है, पढ़ें रिपोर्ट में.
टैरिफ के दबाव और विदेशी पूंजी निकासी से डॉलर महंगा हुआ है और रुपया 88 के ऊपर कमजोर बना हुआ है. इस माहौल में एक्सपोर्टर, खासकर IT और टेक्सटाइल को तुलनात्मक बढ़त मिलती दिख रही है. सोमवार को रुपया 88.23 पर खुला और साल की शुरुआत से 3.15 फीसदी गिरकर एशियाई देशों में सबसे कमजोर परफॉर्मर बना, जबकि पिछले शुक्रवार 88.31 के नए रिकॉर्ड निचले स्तर को छू आया था. एक ओर जहां टैरिफ के दबाव से एक्सपोर्टर को नुकसान का डर बना हुआ है तो वहीं इस रुपया-डॉलर असंतुलन के चलते एक्सपोर्ट को फायदा भी हो रहा है.
क्यों महंगा डॉलर?
विशेषज्ञों के अनुसार अमेरिका की तरफ से भारतीय आयातों पर 50% तक टैरिफ की खबरों ने पोर्टफोलियो इनफ्लो पर चोट की है और सेंटिमेंट दबाया है, इसी बीच 10-वर्षीय बॉन्ड यील्ड 6.70 फीसदी तक चढ़कर 6.57 फीसदी पर नरम हुई. RBI ने छह महीने से बचाए जा रहे 87.80 के स्तर को पार होने दिया, जिससे 88.31 का इंट्राडे रिकॉर्ड लो बना और कमजोरी के कायम रहने की आशंका बनी हुई है.
एक्सपोर्टर को कैसे हो रहा मुनाफा?
IT सेवाओं की डॉलर में होने वाली कमाई रुपये में अधिक बदलती है, इसलिए हर प्रतिशत गिरावट पर ऑपरेटिंग मार्जिन को सहारा मिलता है और ऑर्डर प्रतिस्पर्धात्मक बनते हैं. दवा कंपनियों को भी अमेरिकी और यूरोपीय बाजारों से डॉलर कमाई का समर्थन मिलता है, हालांकि API आयात लागत और हेजिंग असर को कुछ हद तक कम कर सकती है .
टेक्सटाइल और गारमेंट्स की डॉलर-कीमतें वैश्विक खरीदारों को और आकर्षक लगती हैं, जिससे ऑर्डरबुक को बढ़त मिल सकती है, बशर्ते वैश्विक मांग सुस्त न हो. स्पेशियलिटी केमिकल्स, मेटल एक्सपोर्टर और ऑटो कंपोनेंट्स जैसे एक्सपोर्ट-लीड सेगमेंट्स भी रुपये की गिरावट से प्रति डॉलर अधिक रुपये पाते हैं, जिससे राजस्व और मार्जिन को सपोर्ट मिलता है. प्रवासी भारतीयों की रेमिटेंस वैल्यू भी रुपये में बढ़ जाती है, जिससे घरेलू खपत पर इनडायरेक्ट सकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है.
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किसे नुकसान?
तेल और गैस आयातकों पर सबसे अधिक मार पड़ती है क्योंकि भारत को कच्चे तेल का बड़ा हिस्सा आयात करना पड़ता है, लागत बढ़ने पर मार्जिन दबते हैं और कीमत पास-थ्रू का जोखिम बढ़ता है. एविएशन, ऑटो ओईएम और इलेक्ट्रॉनिक्स जैसे डॉलर-संवेदनशील और आयात-निर्भर सेक्टरों में ईंधन, पार्ट्स और कंपोनेंट्स महंगे पड़ते हैं, जिससे कीमतें और मांग दोनों प्रभावित हो सकती हैं.