दिल्ली, मुंबई नहीं बल्कि बिहार के इस गांव से हर साल निकलते हैं सबसे अधिक IITians, कहा जाता है ‘IIT Factory of India’

बिहार के गया जिले का पटवाटोली गांव अब “IIT Factory of India” के नाम से जाना जाता है. पहले करघों के लिए मशहूर यह गांव अब हर साल दर्जनों आईआईटीयन तैयार करता है. ‘वृक्ष संस्था’ के फ्री कोचिंग मॉडल और सामूहिक सहयोग से गांव के छात्र नई ऊंचाइयां छू रहे हैं.

IITians का गांव Image Credit: canva

देश के सबसे मशहूर इंजीनियरिंग संस्थान यानी इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (IIT) में दाखिला लेना आसान नहीं होता है. इसके लिए कठिन परीक्षा के दौर से गुजरना पड़ता है. लेकिन क्या आप जानते हैं कि दिल्ली, मुंबई या किसी बड़े शहर से नहीं बल्कि बिहार के एक गांव से हर साल दर्जनों लड़के-लड़कियां IIT के लिए सेलेक्ट हो रहे हैं. बिहार के गया जिले में स्थित एक छोटा सा गांव पटवाटोली आज पूरे देश में अपनी अनोखी पहचान बना चुका है. यह गांव कभी कपड़ा बुनाई के लिए प्रसिद्ध था और ‘बिहार का मैनचेस्टर’ कहलाता था, लेकिन अब यह “आईआईटीयन गांव” (Village of IITians) बन चुका है. इस गांव को ‘IIT Factory of India’ भी कहते हैं. इस गांव से आज तक सैकड़ों इंजीनियर निकल चुके हैं. यहां के युवा अब करघों की जगह इंजीनियरिंग की दुनिया में अपनी नई पहचान बना रहे हैं.

2025 में 38 छात्रों ने पास किया जेईई एडवांस्ड

पटवाटोली की यह कहानी केवल सफलता की नहीं, बल्कि सामूहिक प्रयास और सामाजिक परिवर्तन की भी कहानी है. इस गांव में हर साल दर्जनों छात्र आईआईटी-जेईई जैसी कठिन परीक्षा को पास करते हैं. 2025 में भी गांव के 45 छात्रों ने जेईई मेन्स परीक्षा पास की जिनमें से 38 ने जेईई एडवांस्ड क्वालीफाई किया. इनमें कई छात्र देश के टॉप 10 प्रतिशत में शामिल हैं.

कैसे काम करता है यह NGO

गांव की इस उपलब्धि के पीछे एक NGO का बड़ा योगदान है. इस NGO का नाम है ‘वृक्ष’ (Vriksha). इस NGO द्वारा छात्रों को पूरी तरह फ्री कोचिंग दी जाती है, जिसका उद्देश्य है कि किसी भी बच्चे का सपना आर्थिक तंगी के कारण अधूरा न रह जाए. इस NGO का संचालन गांव के पूर्व छात्रों और आईआईटी से पास आउट लोगों के सहयोग से किया जाता है, जिन्होंने खुद इसी गांव से निकलकर बड़ी उपलब्धियां हासिल की हैं. इस अनूठी व्यवस्था में सीनियर छात्र अपने जूनियर्स को पढ़ाते हैं. जब किसी जूनियर को कोई समस्या आती है, तो वह अपने सीनियर से मदद लेता है. इस तरह सीखने और सिखाने की एक सतत श्रृंखला बन गई है, जो हर साल नए आईआईटीयन तैयार करती है. यह मॉडल न केवल शिक्षा बल्कि आत्मनिर्भरता और सहयोग की भावना को भी मजबूत करता है.

कब से हुई शुरुआत

रिपोर्ट्स के मुताबिक, पटवा टोली में सबसे पहले 1991 में जितेंद्र पटवा ने आईआईटी की परीक्षा क्रैक की थी. आईआईटी में एडमिशन पाने वाले वह गांव के पहले छात्र बने थे. उनकी इस उपलब्धि के बाद पूरे क्षेत्र के लोग उनके प्रेरित हुए और धीरे-धीरे करके पूरे गांव में इंजीनियरिंग का माहौल बन गया. अब इस गांव के ज्यादातर बच्चों को सपना ही एक सफल इंजीनियर बनने का है. हर साल इस गांव में कई स्टूडेंट्स जेईई में पास होते हैं. ऐसा बताया जाता है कि इस गांव में लगभग हर घर में एक इंजीनियर मौजूद है.