मुफ्त बिजली… कर्ज का जाल! जर्जर पड़े पावर सेक्टर को नए रिफॉर्म से चमकाने की तैयारी या चुपके से लिखी जा रही कोई और कहानी?
पुराने जख्म के इलाज के तौर पर बेचा जा रहा यह विधेयक दर्शन में बदलाव का भी प्रतीक है. बिजली को एक सार्वजनिक सेवा से बदलकर एक मूल्यवान वस्तु के रूप में देखना. मार्केट ड्रिवेन शुल्क लागू करके और मौजूदा सरकारी नेटवर्क पर प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा देकर, इसका उद्देश्य भारत में बिजली खरीदने, बेचने और भुगतान करने के तरीके को फिर से परिभाषित करना है.
लाइट जलाना… सुनने में आसान लगता है, लेकिन हर बार ऐसा करने पर हम समन्वय के सबसे जटिल कार्यों में से एक को शुरू कर देते हैं. तारों, खंभों और सबस्टेशनों का एक जटिल जाल है, जो 1.5 अरब लोगों तक बिजली पहुंचाता है. पर विश्वसनीयता की उस चमक के नीचे एक ऐसा क्षेत्र छिपा है जो कर्ज, अकुशलता और राजनीतिक हस्तक्षेप से मंद पड़ गया है. भारत को रोशन करने वाली मशीनरी लड़खड़ा रही है. उसकी शक्ति और धैर्य दोनों खत्म हो रहे हैं.
इस सेक्टर को ठीक करने के अपने नए प्रयास में केंद्र ने ड्राफ्ट इलेक्ट्रिसिटी (अमेडमेंट) बिल 2025 का अनावरण किया है. एक ऐसा व्यापक सुधार जो निजी खिलाड़ियों के प्रवेश को बढ़ावा देता है. लागत-प्रतिबिंबित टैरिफ में इजाफे के लिए राह तैयार करता है और शायद चुपचाप उपभोक्ताओं को अधिक भुगतान करने के लिए जमीन तैयार करता है.
पुराने जख्म का नया इलाज
पुराने जख्म के इलाज के तौर पर बेचा जा रहा यह विधेयक दर्शन में बदलाव का भी प्रतीक है. बिजली को एक सार्वजनिक सेवा से बदलकर एक मूल्यवान वस्तु के रूप में देखना. मार्केट ड्रिवेन शुल्क लागू करके और मौजूदा सरकारी नेटवर्क पर प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा देकर, इसका उद्देश्य भारत में बिजली खरीदने, बेचने और भुगतान करने के तरीके को फिर से परिभाषित करना है. आलोचकों का कहना है कि इस ‘सुधार’ के साथ एक भीतरी झटका जुड़ा है, जो ग्रिड का धीमा निजीकरण है, जिसके चलते केंद्र सरकार के इस बड़े बदलाव की कीमत घरों को चुकानी पड़ सकती है.
सरकारी डिस्कॉम की समस्या
भारत के पावर मैप पर आज लगभग 90 डिस्कॉम हैं, जो एक दशक पहले 76 थे. इनमें से ज्यादातर सरकारी स्वामित्व वाली कंपनियां हैं, जिनकी संख्या 80 से अधिक है. ये देश के 90 फीसदी से अधिक बिजली उपभोक्ताओं का प्रबंधन करती हैं. केवल कुछ ही निजी कंपनियां हैं, जैसे टाटा पावर दिल्ली डिस्ट्रीब्यूशन, रिलायंस पावर दिल्ली, अडानी इलेक्ट्रिसिटी मुंबई और टोरेंट पावर. कुल मिलाकर, ये निजी कंपनियां भारत के 10 फीसदी से भी कम बिजली उपभोक्ताओं को सर्विस प्रदान करती हैं, लेकिन बिलिंग एफिशिएंसी से लेकर अपटाइम विश्वसनीयता तक, लगभग हर मामले में, ये अधिक चुस्त, सुव्यवस्थित और क्लीन ऑपरेशन करती हुई नजर आती हैं.
सरकारी डिस्कॉम गहरे घाटे में हैं. पावर फाइनेंस कॉर्पोरेशन की 2024 की रिपोर्ट के अनुसार, पिछले दो दशकों में पांच बड़े बेलआउट के बावजूद, उनका घाटा बढ़कर 6.77 लाख करोड़ रुपये हो गया है. सबसे हालिया, 3 लाख करोड़ रुपये की रिस्ट्रक्चरिंग डिस्ट्रीब्यूशन सेक्टर स्कीम (RDSS) जुलाई 2021 में बड़े धूमधाम से इंफ्रास्ट्रक्चर के आधुनिकीकरण और भ्रष्टाचार को जड़ से मिटाने के लिए शुरू की गई थी.
इस योजना का लक्ष्य बुनियादी ढांचे के उन्नयन, स्मार्ट मीटरिंग और घाटे में कमी के जरिए राज्य की डिस्कॉम की ऑपरेशनल एफिशिएंसी और फाइनेंशियल स्टैबिलिटी में सुधार करना था. फिर भी कुछ ही वर्षों बाद, अधिकांश राज्य विद्युत कंपनियां फिर से वहीं पहुंच गई हैं, जहां से उन्हें बदलने की कवायद शुरू की गई थी. ये कंपनियां कर्ज में डूबी हुई, बकाया वसूलने के लिए संघर्ष कर रही हैं और सब्सिडी पर गुजारा कर रही हैं, जो शायद ही कभी समय पर मिलती है.
सरकारी डिस्कॉम में क्यों हैं दिक्कतें?
बीएसईएस के एक पूर्व अधिकारी ने नाम नहीं छापने की शर्त पर सरकारी डिस्कॉम से जुड़ी कई समस्याओं की तरफ ध्यान आकर्षित किया. उन्होंने कहा कि सरकारी डिस्कॉम कंपनियों का पूरा सिस्टम ही जर्जर हुआ पड़ा है. हाल ही में आंकड़ा सामने आया है कि उत्तर प्रदेश को लगभग हर साल 40,000 करोड़ रुपये का नुकसान हो रहा है. अगर इतना बड़ा नुकसान हो रहा है, तो इसे कैसे एक बेहतर सिस्टम कहा जा सकता है.
आगे वो कहते हैं कि सस्ती या मुफ्त बिजली के सियासी वादों ने भी कंपनियों को घाटे के जाल में फंसाया है. वे कहते हैं कि अगर सस्ती बिजली देनी है, तो एनटीपीसी से खरीद के टैरिफ को कम कर दीजिए. यानी एनटीपीसी से सस्ती दर पर बिजली परचेज कीजिए. एनटीपीसी देशभर के डिस्कॉम को करीब 66 फीसदी पावर की सप्लाई करती है. वो कहते हैं कि नुकसान किसी भी हाल में 8-10 फीसदी से अधिक नहीं होना चाहिए.
ड्राफ्ट इलेक्ट्रिसिटी (अमेडमेंट) बिल 2025 को लेकर कहते हैं कि पेपर में यह एक बेहतर कदम नजर आ रहा है. वो कहते हैं कि इसे लागू होने से मार्केट सभी के लिए खुलेगा.
बेलआउट पर बेलआउट… पर कहानी वहीं खड़ी है
पॉलिसी एनालिस्ट अकुल रायजादा ने अपने IFRI रिसर्च पेपर ‘इंडियाज ब्रोकन पावर इकोनॉमिक्स’ में सरकारी डिस्कॉम के कर्ज और फिर बेल आउट की कहानी को समझाया है. वो कहते हैं कि हर बेलआउट का एक ही स्क्रीनप्ले है. एक के बाद एक बेलआउट आते हैं, लेकिन फिर भी सरकारी डिस्कॉम वहीं पर खड़े मिलते हैं. यह स्ट्रक्चर शायद भारत के पावर सेक्टर का सबसे ओपन सीक्रेट है.
सरकारी स्वामित्व वाली डिस्कॉम कंपनियां देश के 90 फीसदी उपभोक्ताओं और 80 फीसदी पावर सप्लाई के लिए जिम्मेदार हैं, लेकिन महंगी बिजली खरीद, कोयले की बढ़ती कीमतों और पुराने इंफ्रास्ट्रक्चर के कारण सबसे कमजोर कड़ी बनी हुई हैं. लंबे और महंगे पावर परचेजिंग एग्रीमेंट (PPA), कोयला लागत, और सप्लाई सिस्टम के मेंटेनेंस में कमी से सर्विस की क्वालिटी प्रभावित होती है.
अगर रेवेन्यू के पक्ष को देखें, तो कई राज्यों में टैरिफ वर्षों तक नहीं बढ़ते, राज्य सरकारों और सरकारी विभागों की सब्सिडी/बिल भुगतान में देरी से नकदी संकट बढ़ता है. इन कमियों को पूरा करने के लिए डिस्कॉम महंगे शॉर्ट टर्म लोन लेते हैं, जो उनकी लॉन्ग टर्म वित्तीय स्थिरता को और जोखिम में डाल देता है.
छोटो ग्राहकों पर बोझ
रिटेल मार्केट से बिजली की खरीद के लिए महंगे कर्ज पर निर्भरता आखिर में ग्राहकों पर बिजली की कीमतों का बोझ बढ़ा देती है, जिसका छोटो उपभोक्ताओं पर प्रभाव पड़ता है. कई राज्यों में बिजली की कीमतों में 85%-90% की वृद्धि हुई है और प्रति माह 200 यूनिट तक बिजली की खपत करने वाले परिवारों के बिल लगभग दोगुने हो गए गए हैं. यह उन समूहों के लिए एक विडंबनापूर्ण मोड़ है जिन्हें राज्य बिजली शुल्क सब्सिडी का लाभ मिलना चाहिए था.
समस्या यह नहीं है कि भारत में बिजली की कमी है, बल्कि दिकक्त ये है कि इसकी अर्थव्यवस्थाएं मेल नहीं खातीं. दशकों से, राजनेता किसानों को ‘मुफ्त बिजली’ और घरों को सस्ती बिजली देने का वादा करते रहे हैं. इन रियायतों की भरपाई के लिए, डिस्कॉम इंडस्ट्रियल और कमर्शियल उपभोक्ताओं से अधिक पैसे वसूलते हैं. नतीजा, क्रॉस-सब्सिडी इतनी अधिक है कि कारखाने सप्लाई की लागत का लगभग दोगुना भुगतान करते हैं, जबकि रेसिडेंशियल कंज्यूमर लगभग आधा.
कितना है बकाया?
ईटी की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत की डिस्कॉम पर अब बिजली उत्पादकों का 92,000 करोड़ रुपये से अधिक का बकाया है. यह एक ऐसा बकाया है जो सप्लाई चेन में कैश फ्लो के लिए रोड़ा बन रहा है. दूसरी ओर, राज्य सरकारों पर अभी भी लगभग 5,500 करोड़ रुपये की टैरिफ सब्सिडी बकाया है, जिसका वादा तो किया गया था, लेकिन भुगतान नहीं किया गया.
कर्नाटक, उत्तर प्रदेश और तेलंगाना जैसे राज्यों में वित्तीय संकट सबसे ज्यादा गहरा है, जहां वित्त वर्ष 24 में डिस्ट्रीब्यूशन घाटा क्रमशः 8,500 करोड़ रुपये, 7,000 करोड़ रुपये और 6,300 करोड़ रुपये से अधिक रहा. इनमें से कई राज्यों में, अकेले अनपेड सब्सिडी डिस्कॉम के कुल घाटे का लगभग एक-चौथाई हिस्सा है, जिससे बिजली कंपनियां एक ऐसे चक्र में फंस गई हैं जहां आज की बिजली की हर मुफ्त यूनिट कल के लिए कर्ज का जाल बनती जा रही है.
डिस्कॉम को बचाने की सरकार की कोशिश
सरकारों ने एक के बाद एक वित्तीय योजनाओं के जरिए सरकारी डिस्कॉम को बचाने की बार-बार कोशिश की है. फिर भी, ये उपाय शॉर्ट टर्म सॉल्यूशन साबित हुए हैं. डिस्कॉम ने सितंबर 2015 तक 3.96 लाख करोड़ रुपये का भारी-भरकम कर्ज जमा कर लिया था. एक महत्वपूर्ण बदलाव के तौर पर, 2015 में शुरू की गई उदय योजना ने राज्यों को सीधे वित्तीय सहायता देने से हटकर, घरेलू कोयला आपूर्ति में वृद्धि और कोयला लिंकेज को बेहतर बनाने जैसे प्रोत्साहनों को चुना.
उदय योजना के तहत राज्यों को अपनी डिस्कॉम के बकाया कर्ज का 75 फीसदी हिस्सा अपने ऊपर लेना था, 2015-2016 में 50 फीसदी और 2016-2017 में 25 फीसदी. मार्च 2020 तक 27 में से 15 राज्यों ने डिस्कॉम के कर्ज में 2 लाख करोड़ रुपये का बोझ उठा लिया था. इसके अतिरिक्त, राज्यों को डिस्कॉम के वित्तीय घाटे के एक बड़े हिस्से को कवर करने का काम सौंपा गया था, जो 2018-19 में 10 फीसदी से बढ़कर 2020-2021 में 50 फीसदी हो गया.
इस स्कीम ने ऑपरेशनल बेंचमार्क निर्धारित किए, लेकिन सेक्टर की आर्थिक समस्या बरकरार रहीं. 2014-2015 और 2019-2020 के बीच, डिस्कॉम का ग्रॉस एनुअल लॉस, उदय अनुदानों और रेगुलेटरी इनकम को छोड़कर 59,000 करोड़ रुपये से बढ़कर 75,000 करोड़ रुपये हो गया.
सांस देने के लिए फिर लौटी सरकार
सरकार एक बार फिर से वित्तीय सहायता के साथ इस डिस्कॉम को बचाने के लिए लौटी. रिवैम्प डिस्ट्रीब्यूशन सेक्टर स्कीम (RDSS) के जरिए 2021-22 में लगभग 3 ट्रिलियन रुपये के चौंका देने वाले बजट के साथ इसकी शुरुआत की गई. इसमें लगभग 1 ट्रिलियन रुपये का सरकारी सहायता शामिल है.
चूंकि यह योजना दो वर्षों में अपने समापन के करीब है, सरकार ने 2026-2027 में शुरू होने वाले दूसरे चरण की घोषणा की है, जिसमें पहले चरण जैसी ही वित्तीय प्रतिबद्धताएं दिखाई गई हैं. प्रत्येक बेलआउट एक ही पटकथा कहते हुए नजर आते हैं. राज्यों को टैक्सपेयर्स द्वारा फंडेड वित्तीय सहायता के बदले में लंबे समय से लंबित सुधारों को लागू करने के लिए मजबूर किया जाता है. फिर भी भीतरी संरचनात्मक मुद्दे अनसुलझे हैं.
ड्राफ्ट विधेयक और एकाधिकार
दशकों तक हर राज्य की डिस्कॉम का एकाधिकार रहा है. एक कंपनी, एक क्षेत्र और तारों का एक सेट. चाहे आप दिल्ली की किसी ऊंची इमारत में रहते हों या मध्य प्रदेश के किसी गांव में, आपके पास एक ही सप्लायर से खरीदने के अलावा कोई विकल्प नहीं था.
नया ड्राफ्ट विधेयक इस मॉडल को तोड़ता है. यह कई वितरण कंपनियों को एक ही क्षेत्र में काम करने की अनुमति देता है, यहां तक कि एक ही फिजिकल नेटवर्क साझा करने का भी अधिकार देता है.
इसका मतलब है कि एक दिन ऐसा आएगा कि आप चुन सकेंगे कि आपको बिजली सप्लाई कौन करेगा. यह बिल्कुल टेलीकॉम सर्विस प्रोवाइडर की तरह हो सकता है, जहां आप आसानी से ऑपरेटर को स्विच करते हैं.
बिजली मंत्रालय इसे ‘च्वॉइस और एफिशिएंसी’ कहता है, लेकिन डिस्कॉम यूनियन इसे ‘पिछले दरवाजे से निजीकरण’ कहते हैं. 10 लाख से ज्यादा बिजली कर्मचारियों का प्रतिनिधित्व करने वाला अखिल भारतीय विद्युत अभियंता संघ (AIPEF) पहले ही विरोध प्रदर्शन कर चुका है. वो चेतावनी दे चुका है कि निजी कंपनियां शहरी और औद्योगिक उपभोक्ताओं को चुनकर ग्रामीण घरों और घाटे वाले इलाकों को सरकारी डिस्कॉम के हवाले कर देंगी.
रायजादा कहते हैं कि ऐसे सुधारों को सावधानी से निपटाया जाना चाहिए. नेटवर्क-स्वामित्व वाली डिस्कॉम को सप्लाई के लिए प्रतिस्पर्धा करने की अनुमति देने से हितों के टकराव का जोखिम बढ़ता है और आवश्यक इंफ्रास्ट्रक्चर में निवेश कमजोर हो सकता है.
च्वॉइस और एफिशिएंसी के पीछे बदलाव
हालांकि, इस विधेयक को एक उपाय के रूप में बेचा जा रहा है. कई लोग इसे कंट्रोल का एक शांत ट्रांसफर मानते हैं. च्वॉइस और एफिशिएंसी के पीछे एक गहरा बदलाव छिपा है. सवाल अब भी वही है कि समस्याओं को बिना सुलाझाए ही ग्रिड को निजी खिलाड़ियों के हाथों में सौंपना, क्या राज्य के एकाअधिकार से एक दूसरे एकाधिकार की तरफ बढ़ना नहीं है? क्या जर्जर हो चुके पावर सिस्टम को सुधारे बिना ही, इसे मुनाफे में बदलने की कोशिश एक बड़ा जोखिम साबित नहीं होगा? यूनियन के नेताओं का कहना है कि सरकार विधेयक के जरिए अपने कर्तव्यों से पीछे हट रही है.
दरअसल, भारतीय घरों में बिजली से रोशनी की कहानी कभी भी सिर्फ सप्लाई और डिमांड पर आधारित नहीं रही. ये हमेशा समानता, पहुंच और जवाबदेही के बारे में रही है. फिर इनके बिना सुधार का हर एक कदम शायद देश के किसी कोने को अंधेरे में छोड़ सकता है.