मनमोहन के बाद अब मोदी का न्यूक्लियर दांव, प्राइवेट प्लेयर के भरोसे ऊर्जा क्रांति का सपना, जानें क्यों बदला रुख
भारत पहली बार न्यूक्लियर सेक्टर में प्राइवेट कंपनियों की एंट्री की तैयारी कर रहा है. प्रस्तावित Atomic Energy Bill 2025 के जरिए सरकार इस क्षेत्र को खोलने की योजना बना रही है. सरकार का टारगेट 2047 तक 100 GW न्यूक्लियर क्षमता हासिल करना, नई टेक्नोलॉजी और ऊर्जा सुरक्षा को मजबूत बनाना है.
भारत में पहली बार ऐसा होने जा रहा है कि प्राइवेट कंपनियां न्यूक्लियर पावर प्लांट बना और चला सकेंगी. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हाल ही में घोषणा की कि देश का परमाणु ऊर्जा क्षेत्र अब निजी कंपनियों के लिए खोला जाएगा. भारत अभी 8.8 गीगावॉट (GW) न्यूक्लियर बिजली बनाता है और सरकार का लक्ष्य है कि 2047 तक इसे बढ़ाकर 100 GW कर दिया जाए. इसी कतार में, संसद के शीतकालीन सत्र में “Atomic Energy Bill , 2025” पेश होगा, जिससे कानून बदलकर प्राइवेट कंपनियों को परमाणु ऊर्जा उत्पादन में हिस्सा लेने की इजाजत दी जाएगी.
अब सवाल उठता है- निजी कंपनियों को शामिल करने का ये फैसला आया क्यों? क्या यह सुरक्षित होगा? क्या भारत को इससे फायदा होगा? और अगर सब अच्छा था तो अब तक प्राइवेट कंपनियां इस सेक्टर में क्यों नहीं थीं?
न्यूक्लियर सेक्टर में प्राइवेट कंपनियों की एंट्री क्यों जरूरी?
ग्लोबल स्तर पर देखें तो न्यूक्लियर कैपेसिटी के मामले में टॉप 10 में भारत 8वें स्थान पर है, जबकि अमेरिका, फ्रांस, चीन और रूस सबसे बड़े खिलाड़ी हैं.

भारत की कुल बिजली उत्पादन क्षमता करीब 430 GW है, जिसमें से सिर्फ लगभग 3 फीसदी न्यूक्लियर पावर से आता है. यह हिस्सा दुनिया के कई देशों की तुलना में काफी कम है. भारत की आबादी और बिजली की जरूरतें लगातार बढ़ रही हैं. देश अभी भी अपनी 70 फीसदी से ज्यादा बिजली कोयले से बनाता है, जो प्रदूषण बढ़ाता है और महंगा भी हो रहा है. न्यूक्लियर बिजली में कार्बन नहीं होता और यह 24 घंटे लगातार सप्लाई दे सकती है. दुनिया के हिसाब से देखें, तो अमेरिका में कुल बिजली का 18 फीसदी न्यूक्लियर पावर से आता है, फ्रांस में यह हिस्सा 70 फीसदी तक है. जबकि भारत में मात्र 3 फीसदी है.

न्यूक्लियर प्लांट बहुत महंगे होते हैं. एक बड़े रिएक्टर की लागत 50,000 से 70,000 करोड़ रुपये तक जा सकती है. सरकार अकेले इतने बड़े निवेश को लंबे समय तक जारी नहीं रख सकती. इसलिए निजी कंपनियों के आने से निवेश बढ़ेगा, नई तकनीक आएगी और प्रोजेक्ट तेजी से बन सकेंगे.
अब तक प्राइवेट कंपनियों को क्यों नहीं मिली इजाजत?
1962 के कानून के हिसाब से न्यूक्लियर प्लांट सिर्फ केंद्र सरकार और उसकी कंपनियां ही बना सकती थीं. इसके अलावा 2010 के “न्यूक्लियर डैमेज लायबिलिटी” कानून में ऐसा प्रावधान है कि अगर कोई दुर्घटना होती है तो सिस्टम बनाने वाली कंपनी को मुआवजा देना होगा. इससे कंपनियां डरती थीं कि कहीं बड़ा नुकसान न हो जाए.
न्यूक्लियर प्रोजेक्ट्स में तीन बड़े जोखिम माने जाते हैं:
- आर्थिक जोखिम: एक रिएक्टर बनने में 8-10 वर्षों तक का समय लग सकते हैं. लंबे समय तक पैसा बंधने पर कम्पनियों के लिए वित्तीय बोझ बढ़ता है.
- कानूनी जोखिम: 2010 के न्यूक्लियर लायबिलिटी कानून के हिसाब से प्लांट बनाने वाली कंपनी को भी मुआवजा देना होगा. इससे निजी कंपनियां डरती रही हैं.
- यूरेनियम की सप्लाई: यूरेनियम खनन और परमाणु कचरे का सुरक्षित प्रबंधन चुनौतीपूर्ण है. भारत अपनी जरूरत का लगभग 70 फीसदी यूरेनियम आयात करता है.
परमाणु दुर्घटना का जोखिम, जहरीले फ्यूकुशिमा-3 (2011) और चेरनोबिल (1986) जैसी घटनाओं ने सतर्कता बढ़ाई. इन तमाम चौंकाने वाली घटनाओं और लंबी लागत वाले निवेश के कारण निजी कंपनियां पहले कदम रखने में हिचकिचाती थीं.
मनमोहन सिंह ने खोले थे दुनिया के लिए दरवाजें
इस पहल को पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के उस ऐतिहासिक परमाणु समझौते की अगली कड़ी की तरह भी देखा जा सकता है. साल 2008 में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अमेरिका के साथ सिविल न्यूक्लियर डील की थी, जिससे भारत को पहली बार अंतरराष्ट्रीय परमाणु बाजार में एंट्री मिली. अब मोदी सरकार का यह फैसला घरेलू कंपनियों को भी इसमें भाग लेने का मौका दे रहा है. पहले डील ने “दुनिया के लिए दरवाजा खोला था” और अब ये कदम “भारत के प्राइवेट प्लेयर का गेट” खोल रहा है.
सरकार क्या तैयारी कर रही है?
इस नए फैसले को सफल बनाने के लिए सरकार कई कदम उठा रही है. फरवरी 2025 की बजट घोषणा में न्यूक्लियर एनर्जी मिशन की घोषणा हुई, जिसमें कम-शक्ति वाले रिएक्टर (SMR) बनाने के लिए $2.3 बिलियन (लगभग 20,000 करोड़ रुपये) अनुसंधान एवं विकास के लिए आवंटित किए गए हैं. इसके साथ ही संसद में AE अधिनियम और न्यूक्लियर लायबिलिटी अधिनियम में संशोधन लाने की प्रक्रिया चल रही है, ताकि प्राइवेट निवेश आकर्षित किया जा सके.
NPCIL ने निजी क्षेत्र को जोड़ने के लिए भी पहल की है. भारत स्मॉल रिएक्टर (220 MW PHWR) के लिए इंडस्ट्री पार्टनरशिप शुरू की गई है, जिसमें निजी कंपनियां भूमि, पानी और पूंजी देंगी और NPCIL डिजाइन एवं संचालन संभालेगा. इसके अलावा NPCIL ने 2024 में उद्योगों से प्रस्ताव मंगाए हैं, जिसमें Hindalco, Jindal, TATA, Adani आदि कंपनियां शामिल हैं. सरकार का रोडमैप है कि 2031-32 तक न्यूक्लियर कैपेसिटी को 8,180 MW से बढ़ाकर 22,480 MW कर दिया जाए. इसके लिए गुजरात, राजस्थान, तमिलनाडु, हरियाणा, कर्नाटक और मध्य प्रदेश में दस नए रिएक्टरों (कुल 8,000 MW) के निर्माण और कमीशनिंग पर काम चल रहा है.

वित्त मंत्री की हालिया प्रस्तुति के मुताबिक 2047 तक 100 GW का लक्ष्य पूरा करने में नवीन ऊर्जा अहम भूमिका निभाएगा. इसी लक्ष्य को पूरा करने के लिए चार्टर्ड रोडमैप भी तैयार किया गया है, जिसमें पुराने कोयला पावर प्लांट साइटों पर न्यूक्लियर रिएक्टर लगाने, अनुमोदन प्रक्रियाओं को तेज करने, टैक्स छूट और दीर्घकालिक फाइनेंस जैसे प्रोत्साहन शामिल हैं.
सरकार ने कई कदम एक साथ उठाए हैं:
- 20,000 करोड़ रुपये का विशेष न्यूक्लियर फंड बजट 2025–26 में रखा गया है.
- कनाडा, कजाकिस्तान और ऑस्ट्रेलिया से यूरेनियम आयात को वापस बूस्ट देने की तैयारी की जा रही है. 2023–24 में भारत ने लगभग 8,000 टन यूरेनियम खरीदा.
- निजी कंपनियों के लिए जोखिम कम करने के लिए “लायबिलिटी पूल” बनाने पर चर्चा चल रही है.
अमेरिका से भारत क्या सीख सकता है?
WorldNuclear.Org की रिपोर्ट के मुताबिक, अमेरिका विश्व का सबसे बड़ा परमाणु ऊर्जा उत्पादक है. अमेरिका में ज्यादातर न्यूक्लियर प्लांट प्राइवेट कंपनियां चलाती हैं. वर्ष 2024 की रिपोर्ट के मुताबिक, वहां 93 रिएक्टर काम कर रहे हैं और कुल बिजली का 18 फीसदी इसी से आता है. वहां 1957 में ‘प्राइस-एंडरसन’ कानून बना जिससे कंपनियों को सुरक्षा मिली और फिर उन्होंने इस सेक्टर में पैसा लगाना शुरू किया.भारत भी इसी तरह की लायबिलिटी फ्रेमवर्क तैयार कर रहा है. अमेरिका के उदाहरण से स्पष्ट है कि जब प्राइवेट सेक्टर सक्रिय हुआ और दुर्घटना जोखिम सीमित किया गया, तब परमाणु उर्जा का विस्तार और स्थिरता मिली. भारत भी इसी मॉडल की ओर बढ़ रहा है.
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