क्यों फायदे का सौदा हो सकता 90 रुपये प्रति डॉलर, 100 रुपये की दुआ कर रहे एक्सपोर्टर, क्या है RBI का गेमप्लान
रुपया 90 रुपये प्रति डॉलर के पार पहुंच गया है और एक्सपोर्टर्स अब खुले तौर पर 100 रुपये के लेवल की दुआ कर रहे हैं. पहली नजर में यह गिरावट डराती है, लेकिन कहानी कहीं ज्यादा गहरी है. RBI का नया गेमप्लान रुपये को नए जोन में लेकर जा रहा है. ट्रेड टैरिफ और आउटफ्लो बाजार की दिशा बदल रहे हैं.
इकोनॉमी को लेकर Gen-Z को शायद उतना तनाव नहीं है, जितना कभी क्रिकेट के भगवान कहे जाने वाले सचिन तेंदुलकर के ‘नर्वस नाइंटीज’ को लेकर हुआ करता था. बहरहाल, ऐसी ही बेचैनी अब करंसी मार्केट में दिखाई दे रही है. साल की शुरुआत में एक डॉलर 86 रुपये का था और आज 90 के ऊपर जा चुका है.
रुपये की कमजोरी को लेकर इम्पोर्टर और एक्सपोर्ट अलग-अलग नजरिया रखते हैं. जहां इम्पोर्टर्स 85–86 की दुआ कर रहे हैं, वहीं एक्सपोर्टर्स 100 रुपये की उम्मीद लगाए बैठे हैं. इसके बीच भारत की इकोनॉमी 8% से ज्यादा की GDP ग्रोथ दिखा रही है, मांग मजबूत है, डॉलर कमजोर हो रहा है, और फिर भी रुपया गिर रहा है. सवाल है आखिर ये हो क्या रहा है?
पहले फ्लैट पिच पर हुई बैटिंग
नई कहानी की शुरुआत यहीं से होती है. पूर्व गवर्नर शक्तिकांत दास के समय RBI ने रुपये को असामान्य रूप से स्थिर रखा. उतार-चढ़ाव लगभग गायब थे. अर्थशास्त्री अरविंद सुब्रह्मण्यन ने इसे “फ्लैट मेलबर्न पिच पर बैटिंग” करार दिया. लेकिन मौजूदा गवर्नर संजय मल्होत्रा ने उस पिच को हटाकर मार्केट की असल तस्वीर दिखाने का फैसला किया है.
अब क्या है RBI का गेमप्लान?
अब RBI सिर्फ तब बाजार में आता है, जब वोलैटिलिटी खतरनाक रूप लेती है. जुलाई में RBI ने 30 अरब डॉलर बेचे थे, ताकि तेज गिरावट रोकी जा सके. लेकिन हाल के हफ्तों में RBI ने हाथ पीछे खींच लिया है. IMF ने भी इस बदलाव को नोट किया और भारत की एक्सचेंज रेट रेजीम को ‘स्टेबलाइज्ड’ से ‘क्रॉल-लाइक’ में अपग्रेड कर दिया. इसका मतलब भारत अब अपनी करंसी को स्वाभाविक दिशा में बहने दे रहा है, जिससे विश्वसनीयता बढ़ती है.
RBI नहीं मान रहा क्राइसिस
RBI गवर्नर मल्होत्रा बार-बार कह रहे हैं कि रुपये का यह मूवमेंट ‘महंगाई अंतर’ से जुड़ा हुआ है. भारत का इन्फ्लेशन दशकों से अमेरिका से ज्यादा रहा है. भारत में महंगाई अक्सर अमेरिका से 3–4% ऊपर चली जाती है. इसके चलते लंबी अवधि में रुपया करीब 5% के औसत से कमजोर होता है. इस लिहाज़ से रुपये का गिरना कोई अनहोनी नहीं, बल्कि आर्थिक नियमों का सीधा नतीजा है. यही वजह है कि RBI इसे किसी क्राइसिस की तरह नहीं देख रहा.
अमेरिकी नीतियों का झटका
रुपये की कमजोरी को समझने के लिए नजर वॉशिंगटन पर भी डालनी पड़ेगी. राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने इस साल भारत पर भारी रेसिप्रोकल टैरिफ लगाए. अगस्त तक भारतीय एक्सपोर्ट्स के बड़े हिस्से पर 50% शुल्क लग चुका था. इसके बाद H-1B वीजा फीस में बढ़ोतरी हुई. इसी दौरान बाजार से 16 अरब डॉलर के आउटफ्लो और रिकॉर्ड 41 अरब डॉलर के ट्रेड डेफिसिट ने रुपये को एशिया की सबसे कमजोर करंसियों में धकेल दिया. जबकि कोरिया, ताइवान और मलेशिया जैसे देशों की करंसी मजबूत होती गईंं, क्योंकि उन पर अमेरिकी टैरिफ का बोझ कम था.
90 रुपये अब न्यू नॉर्मल क्यों?
ज्यादातर एनालिस्ट मान रहे थे कि साल के अंत तक रुपया 88.5 के आसपास रहेगा. लेकिन जैसे-जैसे RBI रिजर्व्स रीबिल्ड कर रहा है और एक्सपोर्ट्स पर दबाव बरकरार है, अब कई विशेषज्ञ 90–92 की रेंज को नई स्थिरता मान रहे हैं. Kotak MF के निलेश शाह का कहना है कि महंगाई और उत्पादकता के अंतर को देखते हुए रुपया लगातार गिरने के लिए ही बना है. उनके मुताबिक 2–3% की वार्षिक गिरावट भारतीय अर्थव्यवस्था की ‘डेस्टिनी’ है. वहीं, Ashika Group के राहुल गुप्ता का आकलन है कि शॉर्ट टर्म में रुपये की चाल 89.50 से 91.20 के दायरे में ही रहेगी और रिकवरी तभी संभव है, जब विदेशी निवेश, ग्लोबल रेट-कट साइकिल और एक्सपोर्ट मोमेंटम में सुधार आए.
कमजोर रुपया क्यों बन सकता है भारत की ताकत
रुपये की गिरावट हमेशा बुरी खबर नहीं होती. कई देश इसे आर्थिक रणनीति के रूप में अपनाते हैं. वियतनाम, जिसकी अर्थव्यवस्था का 90% एक्सपोर्ट पर निर्भर है, जानबूझकर अपनी करंसी को कमजोर रहने देता है, ताकि अमेरिकी टैरिफ के बावजूद उसके उत्पाद सस्ते बने रहें. चीन ने भी 2019 में इसी रणनीति से अमेरिकी टैरिफ को बैलेंस किया था. भारतीय निर्यातकों का भी कहना है कि कमजोर रुपया उनके मार्जिन बचाता है.
चीन से टक्कर में भी मददगार
कमजोर रुपया चीन की बढ़त भी कम करता है. जब चीन से आने वाला सामान महंगा होता है, तो भारतीय मैन्युफैक्चरर्स की प्रतिस्पर्धा बढ़ती है और ट्रेड डेफिसिट घट सकता है. साथ ही, RBI पर एक्सचेंज रेट को बचाने का दबाव भी कम हो जाता है और वह घरेलू महंगाई और विकास पर ज्यादा ध्यान दे सकता है.
चुनौतियां भी कम नहीं
रिजर्व बैंक ने फिलहाल रुपये को भले ही बाजार के हाल पर छोड़ने का फैसला किया है. लेकिन, कुछ एनालिस्टों का मानना है कि रिजर्व बैंक का यह गेमप्लान बैकफायर भी कर सकता है. क्योंकि, अभी देश की जीडीपी में निर्यात की हिस्सेदारी 21 फीसदी और आयात की हिस्सेदारी करीब 79 फीसदी है. इस लिहाज से भारत अभी एक एक्सपोर्ट ड्रिवन इकोनॉमी नहीं है. क्रूड से लेकर गोल्ड तक भारत को भारी-भरकम इंम्पोर्ट करना पड़ता है. ऐसे में रुपये की कमजोरी इंम्पोर्ट बिल को बढ़ा सकती है, जिससे ट्रेड डेफिसिट और फॉरेक्स रिजर्व पर भी दबाव बढ़ सकता है. वहीं, अगर क्रूड की खरीद रुपये के टर्म में महंगी होती है, तो इसका सीधा असर महंगाई पर भी देखने को मिल सकता है.
घबराने की नहीं, समझने की जरूरत
ज्यादातर एनालिस्टों का कहना है कि भारतीय अर्थव्यवस्था अब भी मजबूत है. GDP ग्रोथ 8% के ऊपर है, बैंकिंग सिस्टम सुदृढ़ है, मांग बढ़ रही है और RBI इस बार बाजार को असल रूप दिखाने दे रहा है. कमजोर रुपया किसी संकट का संकेत नहीं, बल्कि देश की बाहरी चुनौतियों के बीच एक रणनीतिक समायोजन है. 90 रुपये का स्तर भले मानसिक रूप से कठिन लगे, लेकिन वहीं से भारत के निर्यात और प्रतिस्पर्धा को नई दिशा भी मिल सकती है.
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