Bihar Election Result: सड़कों पर घूमे राहुल गांधी… पर जमीनी हकीकत से दूर, पतन की ओर कांग्रेस; ‘हाइड्रोजन बम’ भी फुस्स!
कभी एक प्रभावशाली ताकत रही कांग्रेस अब बिहार में एक हाशिये पर खड़ी पार्टी बन गई है, जिसे वोटर अक्सर तीसरे या चौथे स्थान पर धकेल देते हैं. इस बार सीमांचल, मिथिला और मगध के कुछ हिस्सों में कांग्रेस के पारंपरिक गढ़ काफी कमजोर हुए हैं.
जब नेता प्रतिपक्ष और कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने पहली बार अपना ‘हाइड्रोजन बम’ पेश किया, जिसमें उन्होंने चुनाव आयोग और भाजपा पर हरियाणा में बड़े पैमाने पर वोट चोरी (25 लाख फर्जी वोट) कराने का आरोप लगाया, तो इसे बिहार में मतदान के ठीक पहले एक बड़ा बदलाव बताया गया. उन्होंने इसे न केवल चुनावी भ्रष्टाचार बल्कि वोट चोरी बताया और इसे लोकतंत्र पर एक नैतिक हमले के रूप में पेश किया. अभियान को और गति देने के लिए राहुल गांधी ने आधे महीने की ‘मतदाता अधिकार यात्रा’ शुरू की.
पारंपरिक गढ़ भी ढहा
अब बिहार विधानसभा चुनाव के नतीजे आ चुके हैं और एनडीए को रिकॉर्ड बहुमत मिला है. दूसरी तरफ कांग्रेस पार्टी हाल के वर्षों में अपनी सबसे बड़ी गिरावट का सामना कर रही है, जहां उसे केवल छह सीटों पर जीत हासिल हुई है. पार्टी ने 2020 के विधानसभा चुनावों में 19 सीटें जीती थीं. इस बार सीमांचल, मिथिला और मगध के कुछ हिस्सों में कांग्रेस के पारंपरिक गढ़ काफी कमजोर हुए हैं. 2020 में पार्टी जिन सीटों को अपेक्षाकृत मजबूत मान रही थी, वहां भी उसके उम्मीदवार खेत रहे. कांग्रेस इस साल जिन 61 सीटों पर चुनाव लड़ी थी, उनमें से सिर्फ 6 सीटों पर जीत दर्ज कर सकी है. तो जाहिर सी बात है कि वोटों की संख्या में भी भारी गिरावट आई है.
हाशिये पर खड़ी पार्टी
कभी एक प्रभावशाली ताकत रही कांग्रेस अब बिहार में एक हाशिये पर खड़ी पार्टी बन गई है, जिसे वोटर अक्सर तीसरे या चौथे स्थान पर धकेल देते हैं. राज्य में पार्टी का आखिरी महत्वपूर्ण नेतृत्व जगन्नाथ मिश्रा के कार्यकाल में था, जो 1990 में मुख्यमंत्री बने थे. तब से संगठनात्मक क्षरण और नेतृत्व शून्यता ने इसके प्रभाव को लगातार कम किया है. अब नतीजे संकेत देते हैं कि कांग्रेस बिहार में पतन की ओर बढ़ रही है.
स्थानीय मुद्दे से दूर
कांग्रेस ने राष्ट्रीय मुद्दों पर ध्यान केंद्रित किया, लेकिन स्थानीय चिंताओं ने उसके संदेश को दबा दिया. 5 नवंबर को अपनी तीसरी ‘वोट चोरी’ प्रेस कॉन्फ्रेंस, जिसे राहुल ने ‘हाइड्रोजन बम’ कहा था, ने बिहार में पहले चरण के मतदान से एक दिन पहले की. राहुल गांधी ने एक बार फिर ‘जेन जी’ मतदाताओं से सत्य और अहिंसा के जरिए भारत के लोकतंत्र को बचाने में मदद करने की अपील की. कहा, ‘आप में से कई लोग पहली बार वोट डालेंगे. यह सिर्फ आपका अधिकार ही नहीं, बल्कि लोकतंत्र की सबसे बड़ी जिम्मेदारी है. आपने देखा होगा कि हरियाणा में वोट चोरी का घिनौना खेल कैसे खेला गया. महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, हर जगह इन लोगों ने जनता की आवाज दबाने की कोशिश की है.’
हालांकि, चुनाव आयोग ने राहुल गांधी से पूछा कि 2024 में हरियाणा विधानसभा चुनावों के लिए इस्तेमाल की जाने वाली अंतिम मतदाता सूची प्रकाशित होने के बाद उनकी पार्टी ने एक भी अपील क्यों नहीं दायर की. चुनाव आयोग के अधिकारी ने कहा कि एक ओर, राहुल गांधी SIR का विरोध करते हैं, जिसका उद्देश्य मृत, दो या अधिक स्थानों पर रजिस्टर्ड, स्थायी रूप से स्थानांतरित या गैर-नागरिक मतदाताओं को हटाकर मतदाता सूची को शुद्ध करना है. वहीं दूसरी ओर वह पिछली मतदाता सूचियों में अशुद्धियों को उजागर करने के लिए प्रेजेंटेशन देते रहते हैं.’
वोट चोरी अभियान फेल
केंद्र और चुनाव आयोग पर ‘वोट चोरी’ के आरोपों, SIR की आलोचना और मतदाता अधिकार यात्रा पर आधारित राहुल गांधी के जोरदार अभियान के बावजूद, पार्टी का संदेश मतदाताओं तक पहुंचने में विफल रहा. अपने आरोपों को लेकर अदालत जाने से राहुल के इंकार ने उनके ‘वोट चोरी’ के दावों की प्रामाणिकता पर सवाल खड़े कर दिए. हालांकि, कांग्रेस को चुनावी अधिकारों के रक्षक के रूप में पेश करने के लिए रचे गए ‘वोट चोरी’ मुद्दे को राष्ट्रीय स्तर के अभियान में बदल दिया गया, लेकिन यह मुद्दा बिहार में मतदाताओं की पसंद को प्रभावित करने वाली तात्कालिक स्थानीय चिंताओं के आगे दब गया.
1,300 किलोमीटर, 25 जिले, 110 सीटें. राहुल गांधी बिहार में ‘वोट चोर, गद्दी छोड़’ का नारा लगाते हुए मार्च करते रहे, लेकिन मतदाताओं ने साफ तौर पर एक अलग रास्ता अपनाया. वे सीधे मतदान केंद्र तक पहुंचे, लेकिन कांग्रेस पार्टी से दूरी बना ली.
उल्टा पड़ा सेना पर दिया बयान
भारतीय सेना के बारे में राहुल के विवादास्पद दावे भी शायद उलटे पड़ गए. उन्होंने चुनाव से एक दिन पहले यह दावा करके विवाद खड़ा कर दिया कि ‘देश की 10% आबादी’ सेना को नियंत्रित करती है. इस टिप्पणी को ऊंची जातियों की ओर इशारा माना गया. राहुल ने कहा, ‘देश की केवल 10 फीसदी आबादी को कॉरपोरेट सेक्टर्स, नौकरशाही और न्यायपालिका में अवसर मिलते हैं. यहां तक कि सेना भी उनके नियंत्रण में है. बाकी 90 फीसदी पिछड़े वर्ग, दलित, अनुसूचित जनजाति और अल्पसंख्यक कहीं नजर नहीं आते.
राहुल की टिप्पणी ने ऊंची जाति के मतदाताओं को नाराज किया, लेकिन निचली जातियों को प्रभावित नहीं कर पाई. इससे पहले, दो साल पहले अपनी ‘भारत जोड़ो यात्रा’ के दौरान उन्होंने जो दावा किया था कि ‘चीनी सैनिक अरुणाचल प्रदेश में भारतीय सैनिकों की पिटाई कर रहे हैं’, उसके लिए सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें फटकार लगाई थी.
वोट अधिकार यात्रा का असर नहीं
16 अगस्त को राहुल गांधी के नेतृत्व में बहुप्रचारित वोट अधिकार यात्रा शुरू हुई. यात्रा बिहार के 25 जिलों में 1,300 किलोमीटर की दूरी तय करके ‘वोट चोरी’ को उजागर करने के लिए आयोजित की गई थी. उनके अभियान की जोरदार शुरुआत हुई और जिले भर के पार्टी कार्यकर्ताओं और युवाओं की भारी भीड़ उमड़ी, लेकिन ऐसा लगता है कि इसका कोई खास असर नहीं हुआ. यात्रा मार्ग पर लगभग सभी सीटों पर कांग्रेस पिछड़ गई.
इस यात्रा को बिहार में कांग्रेस की संगठनात्मक शक्ति के एक मजबूत प्रदर्शन के रूप में देखा गया. हालांकि, जैसे-जैसे विधानसभा चुनाव प्रचार ने गति पकड़ी, वह शुरुआती उत्साह धीरे-धीरे कम होता गया, जिससे महागठबंधन के भीतर संगठनात्मक कमजोरियां उजागर हुईं. क्योंकि कोई भी गठबंधन जब तक केमेस्ट्री नहीं गढ़ता, तब तक कोई भी समीकरण नहीं जुड़ता.
वोट चोरी के दावे जारी
शुक्रवार को विपक्ष ने अपना ‘वोट चोरी’ का राग जारी रखा, जबकि एनडीए एक शानदार जनादेश के साथ सत्ता को बरकरार रखा है. एनडीए की इस स्पष्ट जीत ने इंडिया ब्लॉक को ‘वोट चोरी’ के अपने आरोपों को फिर से दोहराने और SIR का राग अलापने के लिए प्रेरित किया. हालांकि, जमीनी स्तर पर जनादेश से पता चलता है कि इन दावों का मतदाताओं पर कोई खास असर नहीं पड़ा.
तीन यात्राएं, लेकिन सफलता दूर
राहुल गांधी की तीन राष्ट्रव्यापी यात्राएं, भारत जोड़ो (2022-23), भारत जोड़ो न्याय (2024), और वोट अधिकार (2025) – उन्हें एक जननेता के रूप में फिर से स्थापित करने के लिए तैयार की गईं. प्रत्येक यात्रा का एक खास राजनीतिक सिद्धांत था. पहली यात्रा ने विभाजनकारी राजनीति के विरुद्ध एकता का आह्वान किया, दूसरी यात्रा ने जाति जनगणना और कल्याण के जरिए न्याय की वकालत की और तीसरी यात्रा ने चुनावी प्रथाओं में सुधार और महागठबंधन के बैनर तले सहयोगियों को एकजुट करने का प्रयास किया.
इन यात्राओं ने राहुल की छवि को एक उदासीन नेता से एक समर्पित प्रचारक में बदलने में तो कामयाबी हासिल की, लेकिन प्रतीकात्मक राजनीति की सीमाओं को भी उजागर किया. उन्होंने कार्यकर्ताओं में उत्साह जगाया और उनमें ऊर्जा का संचार किया, लेकिन उस भावनात्मक गति को वोटों में बदलना अब तक संभव नहीं हो पाया है.
पांच साल, तीन यात्राओं और कई अभियानों के बाद, राहुल ने भारतीय राजनीति के लिए एक नई नैतिक शब्दावली गढ़ ली है, लेकिन अभी तक कोई जीत का फॉर्मूला नहीं बना है. भारत भर में उनकी यात्रा ने उन्हें सहानुभूति और पहचान दिलाई है, लेकिन राजनीति पदचिह्नों और बयानों से कहीं ज्यादा की मांग करती है. जब तक कांग्रेस राहुल के नैतिक आवेग को संगठनात्मक ताकत में बदलना नहीं सीखती, तब तक उनकी यात्राएं बिना किसी राजनीतिक लाभ के सिर्फ भव्य तमाशा ही बनी रहेंगी.