भारत चीन की हर चाल को करेगा फेल ! धरती से 20 किलोमीटर ऊपर बनेगा ‘कवच’, जानें क्या है नियर स्पेस

भारतीय वायुसेना अब पारंपरिक वायुसीमा से आगे बढ़ते हुए नियर स्पेस में अपनी मौजूदगी बना रही है, जो 20 से 100 किलोमीटर की ऊंचाई पर स्थित है.यह क्षेत्र निगरानी, संचार और मिसाइल चेतावनी के लिए अहम है.चीन जैसी शक्तियों की गतिविधियों पर नजर रखने, सीमाओं की निगरानी और हाइपरसोनिक मिसाइल डिटेक्शन के लिए भारत इस दिशा में तेजी से कदम बढ़ा रहा है.

भारतीय वायुसेना अब पारंपरिक वायुसीमा से आगे बढ़ते हुए नियर स्पेस में अपनी मौजूदगी बना रही है. Image Credit: FREE PIK

Near Space: समय के साथ युद्ध के क्षेत्र भी बदल रहे हैं. जहां पहले लड़ाई केवल जमीन पर लड़ी जाती थी, उसके बाद समुद्र और फिर द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान आसमान भी युद्ध क्षेत्र बन गया. वर्तमान में यह बात इससे भी आगे बढ़ चुकी है, जहां दुनिया के शक्तिशाली देश स्पेस वार यानी अंतरिक्ष युद्ध की तैयारी कर रहे हैं. चीन, अमेरिका और रूस इसमें अग्रणी देश हैं. इसे देखते हुए भारत ने भी तैयारियां तेज कर दी हैं और वह जल्द ही नियर स्पेस में अपनी ताकत मजबूत करने जा रहा है.

क्या है नियर स्पेस

नियर स्पेस पृथ्वी से लगभग 20 से 100 किलोमीटर की ऊंचाई का क्षेत्र होता है. वर्तमान में सभी देश इस क्षेत्र में अपनी मौजूदगी बढ़ाने में लगे हैं. यह क्षेत्र पारंपरिक विमानों की पहुंच से ऊपर और सैटेलाइट्स की कक्षा से नीचे होता है, इसलिए इसे ‘इग्नोर्ड मिडल एरिया’ भी कहा जाता है. इस क्षेत्र में मौजूदगी से देशों को स्थायी निगरानी, संचार और मिसाइल खतरों की पहचान में मदद मिलती है.

नियर स्पेस में क्यों जरूरी है मौजूदगी

भारत की सुरक्षा आवश्यकताओं को देखते हुए इस क्षेत्र में मौजूदगी जरूरी है, क्योंकि इससे सीमावर्ती क्षेत्रों की निगरानी करना संभव हो पाएगा. लद्दाख, अरुणाचल और सियाचिन जैसे दुर्गम इलाकों में निगरानी रखने के लिए नियर स्पेस में हाई-एल्टीट्यूड प्यूस्डो सैटेलाइट्स (HAPS)और स्ट्रैटोस्फेरिक बैलून का उपयोग किया जा सकता है. इसके अलावा, यहां से एक मजबूत संचार नेटवर्क का विस्तार किया जा सकता है, जो वायु, थल और जल इकाइयों के बीच नेटवर्क सेंट्रिक वॉरफेयर में सहायक होगा.

यदि भारत इस क्षेत्र में अपनी मजबूत उपस्थिति दर्ज करवा लेता है, तो देश की मिसाइल डिफेंस प्रणाली और अधिक मजबूत हो जाएगी, क्योंकि यहां से बैलिस्टिक और हाइपरसोनिक मिसाइलों को इंटरसेप्ट करना अधिक आसान होता है.

क्या कर रही है इंडियन एयरफोर्स

एशिया टाइम्स की हालिया रिपोर्ट के अनुसार इस क्षेत्र में अपनी उपस्थिति बढ़ाने के लिए भारतीय वायुसेना, डीआरडीओ और इसरो के साथ मिलकर नियर स्पेस में निगरानी और ट्रैकिंग सेंसर विकसित करने पर काम कर रही है. इसके अतिरिक्त, इसरो के आरएलवी-टीडी और डीआरडीओ के एचएसटीडीवी जैसे हाइपरसोनिक मिशनों में वायुसेना की भूमिका महत्वपूर्ण होती जा रही है, क्योंकि इससे एयरस्पेस की निगरानी और रिकवरी करना आसान हो गया है. भारत हाइपरसोनिक मिसाइलों के विकास पर भी तेजी से काम कर रहा है. यदि यह प्रयास सफल होता है, तो मैक-5 से भी अधिक गति से चलने वाली मिसाइलें इस क्षेत्र में भारत की उपस्थिति को और अधिक मजबूत करेंगी.

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प्राइवेट सेक्टर भी सक्रिय

इस क्षेत्र में उपस्थिति बढ़ाने के लिए वायुसेना प्राइवेट सेक्टर की भी सहायता ले रही है. आईडेक्स जैसी योजनाओं के तहत भारतीय वायुसेना अब स्टार्टअप्स, विश्वविद्यालयों और निजी कंपनियों के साथ मिलकर सोलर पावर्ड ड्रोन, उच्च ऊंचाई वाले गुब्बारे और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस आधारित नेविगेशन सिस्टम विकसित कर रही है.