Capital Gain vs Business Income: आयकर विभाग कैसे तय करता है शेयरों के मुनाफे पर कौन सा टैक्स रहेगा सही
शेयरों से मुनाफा कमाने के बाद सबसे बड़ा सवाल यही उठता है कि इस कमाई पर टैक्स कैसे लगेगा. कई बार यह कैपिटल गेन माना जाता है तो कई बार बिजनेस इनकम. टैक्स विभाग ने इस पर स्पष्ट गाइडलाइन जारी की है, लेकिन असल फर्क कैसे तय होता है, यही असली राज है.

Capital Gain vs Business Income: मुझसे अक्सर ये सवाल पुछा जाता है कि शेयरों से कमाया गया मुनाफा कब कैपिटल गेन माना जाएगा और कब इसे बिजनेस इनकम माना जाएगा. इस विषय को ऐसे समझा जा सकता है. आयकर कानून के अनुसार किसी कैपिटल एसेट के ट्रांसफर पर होने वाले मुनाफे को कैपिटल गेन के तहत टैक्स किया जाता है, लेकिन कई बार शेयरों की खरीद-फरोख्त की गतिविधि को टैक्सपेयर या इनकम टैक्स विभाग ट्रेडिंग मान्य देता है और ऐसे मुनाफे पर बिजनेस इनकम के तौर पर टैक्स लगाया जाता है.
ऐसे विवादों को कम करने और टैक्स अधिकारियों व टैक्सदाताओं को मार्गदर्शन देने के लिए आयकर विभाग समय-समय पर दिशा-निर्देश जारी करता रहा है. इस आर्टिकल में मैं उन्हीं दिशा-निर्देशों की चर्चा करूंगा जिनके आधार पर यह तय किया जाता है कि मुनाफे पर टैक्स कैपिटल गेन के रूप में लगेगा या बिजनेस इनकम के रूप में.
1989 में जारी निर्देश
आयकर विभाग ने 31 अगस्त 1989 को पहला निर्देश जारी किया जिसमें बताया गया कि शेयर बेचने से होने वाले सरप्लस (मुनाफे) पर टैक्स लगाते समय किन-किन मानकों को ध्यान में रखना है. इन निर्देशों में शेयरों को स्टॉक-इन-ट्रेड (Stock in Trade) या पूंजीगत संपत्ति (Capital Asset) मानने के लिए कई मानदंड तय किए गए.
इन निर्देशों के तहत सबसे महत्वपूर्ण मानदंड करदाता की मंशा (Intention) को देखना था. अगर खरीद केवल मुनाफे के लिए की गई है और खरीदार का उसे अपने लिए रखने या उसका लाभ उठाने का कोई इरादा नहीं है, तो यह इरादा एक महत्वपूर्ण कारक है और यह मजबूत अनुमान देता है कि यह लेन-देन व्यापार के स्वरूप का है. ऐसे में उन सिक्योरिटी को स्टॉक-इन-ट्रेड माना जाएगा और मुनाफे को व्यवसायिक आय माना जाएगा.
लेकिन अगर कोई व्यक्ति इन शेयरों में सिर्फ डिविडेंड/ब्याज कमाने के उद्देश्य से निवेश करता है, तो उसे स्टॉक-इन-ट्रेड नहीं माना जाएगा और बिक्री पर होने वाला लाभ पूंजीगत लाभ माना जाएगा. इसी तरह करदाता द्वारा किए जाने वाले व्यवसाय का स्वरूप भी महत्वपूर्ण होगा. उदाहरण के लिए, स्टॉक ब्रोकर द्वारा खरीदी-बेची गई सिक्योरिटी को व्यवसायिक आय माना जाएगा, जब तक कि अन्य परिस्थितियां अलग इशारा न करें, जैसे उन्हें भविष्य में नियमित आय के लिए रखना.
इसी तरह लेन-देन की मात्रा (Volume of Transactions) भी यह संकेत देती है कि यह ट्रेडिंग का नेचर है. अगर करदाता ने खरीद-बिक्री केवल कभी-कभार की है, तो इसे पूंजीगत संपत्ति मानने की संभावना अधिक होती है.
एक और संकेतक यह है कि क्या करदाता स्वयं शेयरों की खरीद-बिक्री कर रहा है या उसने केवल निवेश किया है ताकि उससे आय हो, या वह उसे अपने अन्य व्यवसाय के लिए रखे हुए है. पहले मामले में सरप्लस को व्यवसायिक आय माना जाएगा जबकि बाद के दो मामलों में पूंजीगत लाभ.
इसके अलावा, करदाता द्वारा Books of Accounts में शेयरों को निवेश (Investment) के रूप में दिखाना भी एक महत्वपूर्ण कारक है. हालांकि यह अकेला निर्णायक नहीं है. उदाहरण के लिए, अगर करदाता लगभग रोजाना शेयरों में सौदे करता है लेकिन उन्हें निवेश के रूप में दिखा रहा है, तो ऐसी स्थिति में खातों में निवेश के रूप में दिखाना गलत है.
2007 में जारी निर्देश
केंद्र सरकार ने 2007 में संशोधित निर्देश जारी किए ताकि किसी विशेष सिक्योरिटी को स्टॉक-इन-ट्रेड या पूंजीगत संपत्ति मानने के मानदंडों को और स्पष्ट किया जा सके. इसमें कहा गया कि शेयरों को निवेश के रूप में रखा गया है या स्टॉक-इन-ट्रेड के रूप में, यह करदाता की जानकारी और उसके आचरण (Conduct) पर निर्भर करता है. इसलिए करदाता पर यह जिम्मेदारी है कि वह अपने दावे के समर्थन में सबूत दे.
इसमें यह भी कहा गया कि लेन-देन का वास्तविक स्वरूप (Substance) ही महत्वपूर्ण है, जैसे खातों की किताबें कैसे रखी गई हैं, खरीद-बिक्री का परिमाण कितना है, खरीद और बिक्री का अनुपात कैसा है. इन सभी कारकों को मिलाकर ही करदाता और कर अधिकारी एक उचित निष्कर्ष पर पहुंच सकते हैं.
यह जरूरी नहीं कि किसी करदाता की सारी होल्डिंग को स्टॉक-इन-ट्रेड या पूंजीगत संपत्ति ही माना जाए. करदाता कुछ शेयरों को पूंजीगत संपत्ति और कुछ को स्टॉक-इन-ट्रेड मान सकता है. यहां तक कि एक ही कंपनी के कुछ शेयरों को स्टॉक-इन-ट्रेड और कुछ को पूंजीगत संपत्ति माना जा सकता है. यानी करदाता के पास दो अलग-अलग पोर्टफोलियो हो सकते हैं, एक निवेश पोर्टफोलियो और दूसरा ट्रेडिंग पोर्टफोलियो. जब किसी करदाता ने पहले वर्षों में कुछ सिक्योरिटीज को पूंजीगत संपत्ति के रूप में दिखाया है और आयकर अधिकारियों ने इसे स्वीकार किया है, तो बिना ठोस सबूत के बाद में कर अधिकारी अलग रुख नहीं अपना सकते.
सरकार ने कर अधिकारियों को यह भी सलाह दी है कि यह तय करते समय कि कोई सिक्योरिटी स्टॉक-इन-ट्रेड है या पूंजीगत संपत्ति, सभी तथ्यों और परिस्थितियों को समग्रता में देखा जाए. कोई एक सिद्धांत निर्णायक नहीं होगा. इसलिए लेन-देन और सिक्योरिटी की विशिष्ट नेचर को ध्यान में रखते हुए निर्णय लेना होगा.
2016 में जारी निर्देश
ऊपर दिए गए सभी निर्देशों के बावजूद सिक्योरिटी की बिक्री से जुड़े मामलों पर टैक्स किस स्टॉक कि कमाई पर कैसे लगेगा, का विवाद जारी रहा. इसीलिए अधिक स्पष्टता लाने और विवाद को खत्म करने के लिए सरकार ने 29 फरवरी 2016 को एक सर्कुलर जारी किया. इस सर्कुलर में कहा गया कि यदि करदाता किसी सिक्योरिटी को स्टॉक-इन-ट्रेड मानता है, तो आयकर अधिकारी को इसे स्वीकार करना होगा, भले ही उस सिक्योरिटी की होल्डिंग अवधि कितनी भी हो. इसी तरह अगर लिस्टेड सिक्योरिटी को 12 महीने से अधिक समय तक रखा गया है और करदाता उन्हें पूंजीगत संपत्ति मानना चाहता है, तो आकलन अधिकारी को इसे मानना होगा.
तो उपरोक्त दो स्थितियों में जहां करदाता ने एक विकल्प चुन लिया है, वहां कर अधिकारी को उस विकल्प को स्वीकार करना होगा.
मेरा मानना है कि नवीनतम सर्कुलर के साथ अधिकांश मामलों का समाधान हो गया है और इससे विवादों में कमी आएगी.
लेखक एक टैक्स और इंवेस्टमेंट एक्सपर्ट हैं. यहां व्यक्त विचार उनके निजी हैं. आप उन्हें jainbalwant@gmail.com पर या ट्विटर हैंडल @jainbalwant पर संपर्क कर सकते हैं.
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