बुद्ध के मुस्कुराने से लेकर नेट जीरो तक, प्रतिबंधों और समझौतों से होती हुई ‘शांति’ तक पहुंची भारत की न्यूक्लियर यात्रा

भारत अब न्यूक्लियर एनर्जी को सिर्फ हथियारों के लिए साधने से आगे की राह अख्तियार कर चुका है. न्यूक्लियर से बिजली बनाकर नेट जीरो का लक्ष्य निर्धारित हो चुका और इसे हासिल करने के लिए शांति बिल सरकार लेकर आई है, जिसके जरिए देश की एनर्जी की जरूरतों को पूरा किया जा सकेगा.

भारत की न्यूक्लियर यात्रा. Image Credit: AI

साल 1974, तारीख 18 मई. गर्मी का एक झुलसा देने वाला दिन था. तापमान तो ये मौसम का था, लेकिन इसमें इजाफा कर रहा था राजस्थान से आया एक कोड मैसेज. मैसेज ने बयां कर दिया था कि पोखरण के आसमान की तरफ रेत की धोरे उछल चुकी हैं, धरती हिल चुकी है और भारत ने परमाणु शक्ति को साध लिया है. भारत ने अमेरिका, सोवियत संघ, ब्रिटेन फ्रांस और चीन जैसे देशों के छोटे से ग्रुप से बाहर पहला परमाणु शक्ति बनकर दुनिया को चौंका दिया. उस दिन भारत ने दुनिया के मंच पर अपनी नई पहचान की घोषणा की और कोड वाला मैसेज था ‘बुद्धा स्माइल्ड’ यानी बुद्ध मुस्कुराए. इस ऐतिहासिक दिन को करीब 51 साल गुजर गए हैं यानी आधी सदी बीत गई है. भारत अब न्यूक्लियर एनर्जी को हथियारों के लिए साधने से आगे की राह अख्तियार कर चुका है. न्यूक्लियर से बिजली बनाकर नेट जीरो का लक्ष्य निर्धारित हो चुका और इसे हासिल करने के लिए शांति बिल सरकार लेकर आई है, जिसके जरिए देश की एनर्जी की जरूरतों को पूरा किया जा सकेगा.

वैज्ञानिक आजादी का बयान

थार रेगिस्तान के बीच पोखरण में किया गया भूमिगत परीक्षण, जितना वैज्ञानिक आजादी का बयान था, उतना ही एक भू-राजनीतिक दांव भी था. आधिकारिक तौर पर इसे शांतिपूर्ण परमाणु विस्फोट बताया गया था. लेकिन इस विस्फोट ने दुनिया की शक्ति के संतुलन को बदलकर रख दिया. दूसरी तरफ सुर्खियों और इस खबर से आए राजनयिक भूकंप से परे, इस पल ने भारत के महत्वाकांक्षी और विकसित हो रहे नागरिक परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम की नींव भी रखी. अगले पांच दशकों में भारत ने धीरे-धीरे, लेकिन सावधानी से न सिर्फ एक निवारक के तौर पर, बल्कि ऊर्जा सुरक्षा और जलवायु जिम्मेदारी के लिए एक उपकरण के रूप में भी परमाणु शक्ति के वादे को पूरा किया.

1980 और 1990 के दशक में भारत ने चुपचाप एक आत्मनिर्भर परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम की नींव रखी. इस विजन का एक मुख्य हिस्सा प्रेशराइज़्ड हेवी वॉटर रिएक्टर्स (PHWRs) का विस्तार था, जो प्राकृतिक यूरेनियम और भारी पानी पर निर्भर थे, ऐसे संसाधन जिन्हें भारत स्वतंत्र रूप से हासिल कर सकता था. इस समय भारत ने परमाणु वैज्ञानिक होमी भाभा के दूरदर्शी तीन-चरणों वाले परमाणु कार्यक्रम पर ध्यान केंद्रित किया.

पहले चरण में प्राकृतिक यूरेनियम का उपयोग करने वाले PHWRs, उसके बाद प्लूटोनियम का उपयोग करने वाले फास्ट ब्रीडर रिएक्टर्स (FBRs) और तीसरे, महत्वाकांक्षी चरण में – थोरियम का उपयोग करने की योजना थी. एक ऐसा संसाधन जो भारत के समुद्री तटों पर प्रचुर मात्रा में मौजूद है, लेकिन इसका उपयोग करना तकनीकी रूप से चुनौतीपूर्ण बना हुआ है.

भारत का विरोध

लगभग पूरी पश्चिमी और कम्युनिस्ट दुनिया ने भारत के परमाणु कार्यक्रम का बहिष्कार किया. इसमें भाग लेने वाली कंपनियों पर भी प्रतिबंध लगाए गए. दृढ़ अंतरराष्ट्रीय विरोध के बावजूद, भारत आगे बढ़ता रहा. फिर साल आया 1987 का. इस बरस न्यूक्लियर पावर कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड (NPCIL) की स्थापना हुई. इसके अगले 10 साल बाद यानी 1998 तक भारत के पास 10 चालू न्यूक्लियर रिएक्टर थे. हालांकि भारत की ऊर्जा जरूरतों की तुलना में कुल क्षमता कम थी, लेकिन न्यूक्लियर पावर के लिए इंफ्रास्ट्रक्चर और संस्थागत आधार मजबूती से स्थापित हो चुका था.

पोखरण-II और प्रतिबंधों की बौछार

फिर मई 1998 में पोखरण-II हुआ. पांच न्यूक्लियर टेस्ट की एक सीरीज, जिसने खुले तौर पर भारत की न्यूक्लियर हथियार क्षमता का प्रदर्शन किया. बुद्ध दोबारा मुस्कुराएं और एक बार फिर भारत पर प्रतिबंधों की बौछार हो गई. पर इस बार हालात थोड़े बदले. इन परीक्षण के परिणामस्वरूप एक रणनीतिक बातचीत शुरू हुई, जो अगले दशक में एक ऐतिहासिक सफलता में बदल गई. जब 2008 में भारत-अमेरिका के बीच सिविल न्यूक्लियर समझौता ने रूप लिया. 2008 में इस समझौते को, जिसे 123 समझौता कहा जाता है, दोनों पक्षों ने औपचारिक रूप से साइन किया. इस समझौते को भारत के नजरिए से एक महत्वपूर्ण कदम माना गया.

भारत-अमेरिका सिविल न्यूक्लियर डील

भारत-अमेरिका सिविल न्यूक्लियर डील ने भारत को एडवांस्ड न्यूक्लियर टेक्नोलॉजी और ईंधन तक पहुंच बनाने में सक्षम बनाया, जो उसकी बढ़ती ऊर्जा जरूरतों को पूरा करने के लिए जरूरी था. इस डील ने हाई-टेक्नोलॉजी और रक्षा जैसे क्षेत्रों में भारत और अमेरिका के बीच बेहतर सहयोग का रास्ता भी साफ किया है, जिससे दोनों देशों के बीच एक रणनीतिक साझेदारी मजबूत हुई.

इस समझौते का मकसद भारत पर लगे उस प्रतिबंध को हटाना था, जिसके तहत भारत को देश के बाहर से सिविल न्यूक्लियर टेक्नोलॉजी या न्यूक्लियर फ्यूल तक कोई पहुंच नहीं थी. यह प्रतिबंध भारत पर मई 1974 में पोखरण में भारत के ‘शांतिपूर्ण परमाणु विस्फोट’ और न्यूक्लियर सप्लायर्स ग्रुप के बनने के बाद लगाया गया था.

वर्षों की बातचीत के बाद इस समझौते ने औपचारिक रूप से भारत को एक ज़िम्मेदार न्यूक्लियर शक्ति के रूप में मान्यता दी, भले ही उसने अप्रसार संधि पर हस्ताक्षर नहीं किए थे. इसने ग्लोबल न्यूक्लियर ईंधन बाजारों और एडवांस्ड रिएक्टर टेक्नोलॉजी तक पहुंच खोली, और सभी बड़ी शक्तियों के साथ सहयोग को संभव बनाया.

नीतिगत सुधारों को बढ़ावा

देश के अंदर इस समझौते ने नीतिगत सुधारों को बढ़ावा दिया. परमाणु ऊर्जा अधिनियम में संशोधन किया गया, जिससे रिएक्टर निर्माण और ईंधन चक्र के कुछ हिस्सों में सीमित निजी और विदेशी सहयोग की अनुमति मिली. दरवाजे थोड़े से ही सही पर खुले, जिसमें से रोशनी की एक लकीर इस दिशा में चमकने लगी.

इंटरनेशनल रिएक्टर डील

2008 से 2020 तक, भारत ने कई इंटरनेशनल रिएक्टर डील कीं. रूस (कुडनकुलम पावर प्लांट के लिए), फ्रांस (जैतापुर प्रोजेक्ट के लिए), और वेस्टिंगहाउस और GE-हिताची जैसी अमेरिकी कंपनियों के साथ कमर्शियल समझौते साइन किए गए.

इन प्रोजेक्ट्स का मकसद भारत के ग्रिड में गीगावाट की न्यूक्लियर क्षमता जोड़ना था, जिससे बढ़ती आबादी के लिए एक साफ और भरोसेमंद एनर्जी सोर्स मिल सके. फिर भी, प्रोग्रेस उम्मीद से धीमी रही. लोगों का विरोध, खासकर जमीन अधिग्रहण और पर्यावरण संबंधी चिंताओं को लेकर, बड़ी रुकावटें पैदा हुईं. एक बड़ी कानूनी बाधा भी सामने आई. द सिविल लायबिलिटी फॉर न्यूक्लियर डैमेज एक्ट, 2010, जिसमें एक लायबिलिटी क्लॉज जोड़ा गया, जिससे विदेशी सप्लायर निवेश करने से हिचकिचाने लगे.

हालांकि, कुछ सफलताएं भी मिलीं. रूसी मदद से बनाए गए कुडनकुलम यूनिट 1 और 2 को चालू किया गया. NPCIL ने गुजरात, राजस्थान और कर्नाटक जैसे राज्यों में स्वदेशी PHWR बनाना जारी रखा.

एक बड़ा वैज्ञानिक मील का पत्थर भी पूरा होने वाला था. कलपक्कम में प्रोटोटाइप फास्ट ब्रीडर रिएक्टर (PFBR) — तीन-स्टेज प्लान के दूसरे स्टेज की ओर एक अहम कदम — जो भारत को क्लोज्ड फ्यूल साइकिल को हासिल करने के करीब ला रहा था.

नेट जीरो एमिशन का लक्ष्य

2020 के दशक की शुरुआत में भारत ने 2070 तक नेट जीरो एमिशन का लक्ष्य रखा, और कोयले की बढ़ती अस्थिर सप्लाई का सामना करते हुए, न्यूक्लियर एनर्जी को फिर से बढ़ावा देने का फैसला किया. 2020 और 2025 के बीच 14 नए रिएक्टरों का कंस्ट्रक्शन या तो शुरू किया गया या मंजूर किया गया, जिसका मकसद 2031 तक कुल क्षमता को 22 GW तक बढ़ाना था.

सरकार ने घरेलू रिएक्टर डेवलपमेंट के लिए बजट सपोर्ट भी बढ़ाया, और स्मॉल मॉड्यूलर रिएक्टर (SMRs) की खोज शुरू की, ये कॉम्पैक्ट, स्केलेबल और स्वाभाविक रूप से सुरक्षित टेक्नोलॉजी हैं, जो भारत की क्षेत्रीय बिजली जरूरतों के लिए उपयुक्त हैं.

पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप (PPP) को बढ़ावा मिलने लगा. इस बीच, थोरियम रिसर्च में फिर से निवेश किया गया, खासकर एडवांस्ड हेवी वॉटर रिएक्टर (AHWR) प्रोजेक्ट में, यह भाभा के विजन के तीसरे स्टेज को आखिरकार ऑपरेशनल हकीकत में बदलने का एक प्रयास था.

भारत में अब 23 न्यूक्लियर रिएक्टर चल रहे हैं, जिनसे 7.5 GW से अधिक बिजली बनती है. हालांकि न्यूक्लियर एनर्जी अभी भी भारत के कुल एनर्जी मिक्स का एक छोटा सा हिस्सा है, लेकिन यह बेसलोड पावर देने में एक अनोखी और जरूरी भूमिका निभाती है जो कम कार्बन वाली और रणनीतिक रूप से आत्मनिर्भर है.

‘शांति’ से चमक सकता है भारत का न्यूक्लियर भविष्य

लोकसभा ने बुधवार को सस्टेनेबल हार्नेसिंग एंड एडवांसमेंट ऑफ न्यूक्लियर एनर्जी फॉर ट्रांसफॉर्मिंग इंडिया बिल (SHANTI), 2025 पास कर दिया, जिससे भारत के सिविल न्यूक्लियर ढांचे में बड़े बदलाव का रास्ता साफ हो गया है. यह कानून पहली बार परमाणु ऊर्जा क्षेत्र के कुछ हिस्सों को प्राइवेट भागीदारी के लिए खोलकर एक महत्वपूर्ण नीतिगत बदलाव को दिखाता है.

1974 में बुद्ध मुस्कुराए थे. आधी सदी बाद, भारत का न्यूक्लियर भविष्य आखिरकार ‘शांति’ से चमकने के लिए तैयार हो सकता है.

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