डेयरी पर भारत की रेड लाइन: अमेरिका-न्यूजीलैंड का दबाव, घी से लेकर नॉनवेज मिल्क तक कहां छुपे हैं रिस्क फैक्टर

भारत के डेयरी सेक्टर को विदेशी प्रतिस्पर्धा से बचाने के पीछे केवल भावनात्मक या सांस्कृतिक वजहें नहीं, बल्कि ठोस आर्थिक और नीतिगत कारण है. एग्री इकोनॉमिस्ट के मुताबिक, भारत में डेयरी एक आजीविका-आधारित सेक्टर है, जहां करीब आठ करोड़ ग्रामीण परिवार दूध पर निर्भर हैं. वहीं, दूसरे इकोनॉमिस्ट कहते हैं कि दोनों देशों की डेयरी भारी सब्सिडी और लो-कॉस्ट मॉडल पर चलती है, जिसका मुकाबला भारतीय छोटा किसान नहीं कर सकता.

डेयरी आयात प्रतिबंध Image Credit: Money9 Live

Reason behind dairy import restrictions: जब भारत अमेरिका या न्यूजीलैंड जैसे देशों के साथ ट्रेड डील पर बातचीत करता है, तो एक सेक्टर ऐसा है जहां हर बार बातचीत आकर अटकती है- डेयरी. बाहर से देखने पर यह जिद या सांस्कृतिक हठ जैसा लग सकता है, लेकिन गहराई में जाएं तो यह भारत की ग्रामीण अर्थव्यवस्था, खाद्य सुरक्षा और लाखों लोगों की रोजी-रोटी से जुड़ा मामला है. यही वजह है कि सरकार चाहे अमेरिका से बढ़ते टैरिफ का दबाव हो या न्यूजीलैंड में मिनिस्टर्स की नाराजगी, डेयरी को लेकर कोई समझौता करने को तैयार नहीं दिखती.

आजीविका बनाम व्यापार की अर्थव्यवस्था

संयुक्त राष्ट्र के खाद्य एवं कृषि संगठन (FAO) के आंकड़ों के मुताबिक, देश का 70% दूध उत्पादन छोटे एवं सीमांत किसान और भूमिहीन मजदूर करते हैं, जिनके पास औसतन मात्र 1–2 दुग्धीय पशु होते हैं और दूध उनके लिए अतिरिक्त कमाई नहीं, बल्कि रोजमर्रा की आजीविका का आधार है. वहीं, अमेरिका या न्यूजीलैंड में ये ट्रेड ड्रिवन बिजनेस है.

एग्री इकोनॉमिस्ट विजय सरदाना इसे बेहद साफ शब्दों में रखते हैं, “अमेरिका या न्यूजीलैंड के लिए डेयरी एक बिजनेस है, लेकिन भारत के लिए यह आजीविका का सेक्टर है. वहां हजार की संख्या में डेयरी किसान हैं और उसी संख्या में गिने-चुने बड़े फार्म दूध उत्पादन करते हैं. यहां करीब आठ करोड़ ग्रामीण परिवारों की रोजी-रोटी इस पर निर्भर है.”

भारत दुनिया का सबसे बड़ा दूध उत्पादक देश है. सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, 2023–24 में भारत का कुल दूध उत्पादन करीब 239 मिलियन टन रहा, जो वैश्विक उत्पादन का लगभग 24–25% है.

इसके उलट, अमेरिका और न्यूजीलैंड की तस्वीर बिल्कुल अलग है:

  • अमेरिका में दूध उत्पादन लगभग 102 मिलियन टन है, लेकिन यह मुख्य रूप से बड़े, अत्यधिक मैकेनाइज्ड फार्म्स से आता है. वहां डेयरी किसानों को भारी सब्सिडी मिलती है. अमेरिकी Dairy Margin Coverage जैसी योजनाओं के तहत एक औसत डेयरी फार्म को करीब सालाना 60–70 हजार डॉलर तक का सपोर्ट मिल सकता है.
  • न्यूजीलैंड का दूध उत्पादन भारत से काफी कम है, लेकिन उसका करीब 95% दूध एक्सपोर्ट होता है. 2024–25 में न्यूजीलैंड के डेयरी एक्सपोर्ट्स का मूल्य लगभग 14 अरब डॉलर रहा, जो देश के कुल निर्यात का करीब 30% है.

स्वदेशी जागरण मंच के राष्ट्रीय सह-संयोजक अश्विनी महाजन कहते हैं, “न्यूजीलैंड और ऑस्ट्रेलिया की डेयरी लार्ज-स्केल कॉरपोरेट मॉडल पर आधारित है. भारत में एक किसान के पास एक या दो पशु हैं. दोनों का प्रोडक्शन स्ट्रक्चर एक जैसा नहीं है, तो फ्री ट्रेड भी बराबरी का नहीं हो सकता.”

यही बुनियादी फर्क भारत की पोजिशन तय करता है. भारत के लिए डेयरी किसानों की आमदनी और ग्रामीण स्थिरता का मामला है, जबकि अमेरिका और न्यूजीलैंड के लिए यह नए बाजार खोलने का अवसर.

घी बनाम बटर ऑयल, जहां असली खतरा छुपा है

भारत में घी डेयरी का सबसे महंगा और प्रीमियम प्रोडक्ट माना जाता है. धार्मिक, सांस्कृतिक और पोषण- तीनों ही स्तर पर इसकी खास जगह है. वहीं न्यूजीलैंड जैसे देशों में घी को बटर ऑयल कहा जाता है और वहां यह एक तरह से बाय-प्रोडक्ट है, जिसकी घरेलू खपत बेहद सीमित है.

विजय सरदाना इस फर्क को बेहद व्यावहारिक तौर पर समझाते हैं, “जो चीज भारत में प्रीमियम है, वही न्यूजीलैंड में बाय-प्रोडक्ट है. वहां बटर ऑयल सस्ता है. भारत में एक किलो घी की कीमत 600-650 रुपये बैठती है, पर वहीं बटर ऑयल का दाम महज 300 रुपये है. अगर बटर ऑयल वह भारत आया, तो ऐसा कोई डेयरी प्रोडक्ट नहीं बचेगा जो फ्रेश मिल्क से बने और बटर ऑयल से न बनाया जा सके, चाहे आइसक्रीम हो, दही हो या लिक्विड मिल्क.”

यहीं से वह ट्रेड गैप पैदा होता है, जिसे एक्सपर्ट्स भारत के डेयरी सेक्टर के लिए सबसे बड़ा खतरा मानते हैं. अगर सस्ता बटर ऑयल और मिल्क पाउडर इंपोर्ट होकर आने लगे, तो प्रोसेसिंग कंपनियों को किसानों से दूध खरीदने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी.

श्रीलंका से मिली सीख और भारत का ‘एंटी-डंपिंग केस’

भारत का यह डर केवल काल्पनिक नहीं है, श्रीलंका इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है. न्यूजीलैंड के सस्ते डेयरी प्रोडक्ट्स की एंट्री के बाद वहां का घरेलू डेयरी सेक्टर धीरे-धीरे खत्म हो गया. कीमतों के दबाव में किसान डेयरी छोड़ते गए.

विजय सरदाना कहते हैं, “न्यूजीलैंड ने जिस तरह से श्रीलंका में डेयरी डंप की, वहां का सेक्टर चल ही नहीं पाया. हालात इतने बिगड़े कि श्रीलंका को भारत से डेयरी डेवलपमेंट में मदद मांगनी पड़ी, लेकिन एक बार बाजार टूट जाए और इंपोर्ट पर निर्भर हो जाए, तो उसे वापस खड़ा करना आसान नहीं होता.”

भारत के नीति-निर्माताओं के सामने यही डर है, अगर दो-तीन साल तक भी सस्ते आयात के दम पर बाजार खोला गया, तो उसके बाद भारतीय किसान इस सेक्टर से बाहर हो जाएंगे. और एक बार ऐसा हुआ, तो देश को हमेशा के लिए बाहरी आपूर्ति पर निर्भर होना पड़ेगा.

भारत के लिए यह खतरा इसलिए भी वास्तविक माना जाता है क्योंकि न्यूजीलैंड के डेयरी प्रोडक्ट्स के खिलाफ एंटी-डंपिंग केस पहले ही दर्ज किया जा चुका है. सरदाना कहते हैं, “न्यूजीलैंड हमेशा से गलत ट्रेड प्रैक्टिस में शामिल रहा है, उसने भारत में भी इसकी कोशिश की जिसके बाद मेरे द्वारा एंटी डंपिंग का केस दर्ज कराया गया. डंपिंग का खेल बहुत साफ होता है. कुछ साल घाटे में बेचो, लोकल सेक्टर खत्म करो, फिर पूरा बाजार अपने हाथ में ले लो.”

अश्विनी महाजन कहते हैं कि 8 करोड़ हाउसहोल्ड पर निर्भर सेक्टर के साथ भारत यह जोखिम नहीं ले सकता, और इस लिए सरकार का फैसला जनहित में है.

‘नॉनवेज मिल्क’ और फूड सिक्योरिटी का सवाल

अमेरिका के साथ बातचीत में डेयरी का एक बड़ा विवाद ‘नॉनवेज मिल्क’ को लेकर रहा है. अक्सर इसे सांस्कृतिक या धार्मिक मुद्दा बताया जाता है, लेकिन हकीकत इससे कहीं ज्यादा तकनीकी और गंभीर है.

1986 में Mad Cow Disease (BSE) ने ब्रिटेन डेयरी इंडस्ट्री को तबाह कर दिया था. इस बीमारी के पीछे एक बड़ा संदेह यह था कि जानवरों को प्रोटीन सप्लीमेंट के तौर पर स्लॉटरहाउस से निकले अवशेष खिलाए गए.

विजय सरदाना बताते हैं, “इस बीमारी के कारण और ट्रांसमिशन पर आज भी पूरी वैज्ञानिक निश्चितता नहीं है. ऐसे मामलों में अंतरराष्ट्रीय फूड लॉ ‘Precautionary Principle’ अपनाता है. यानी, अगर किसी प्रैक्टिस से बड़े जोखिम की आशंका हो, भले ही उसके पूरे वैज्ञानिक प्रमाण न हों, तो उसे पहले रोकना बेहतर है.”

भारत में इसी सिद्धांत के तहत Livestock Importation Act को संशोधित किया गया, ताकि उन देशों से डेयरी या लाइवस्टॉक प्रोडक्ट्स का आयात रोका जा सके, जहां पशुओं को स्लॉटरहाउस आधारित फीड दी जाती है. यह फैसला धार्मिक के साथ साथ फूड सिक्योरिटी और पब्लिक हेल्थ से भी जुड़ा है.

लागत का असमान खेल

डेयरी ट्रेड में असमानता की एक और बड़ी वजह है ‘कॉस्ट ऑफ प्रोडक्शन’ यानी उत्पादन लागत भी है. अमेरिका में डेयरी किसानों को भारी सब्सिडी मिलती है. वहीं न्यूजीलैंड में बड़े-बड़े खुले मैदान हैं, जहां गायों को चरने के लिए छोड़ दिया जाता है. इससे फीड कॉस्ट लगभग शून्य हो जाती है.

भारत में हालात इसके उलट हैं. यहां चरागाह सिकुड़ चुके हैं. किसान पशुओं को बांधकर रखते हैं और चारा खरीदकर खिलाते हैं. ऊपर से कोई डायरेक्ट डेयरी सब्सिडी नहीं है. ऐसे में भारतीय किसान की लागत स्वाभाविक तौर पर ज्यादा होती है.

अश्विनी महाजन कहते हैं,“अमेरिका की सरकार से मिलने वाली सब्सिडी का मुकाबला भारत का छोटा किसान कैसे करेगा? यह मुकाबला बराबरी का है ही नहीं. इसलिए बाजार खोलने का कोई तुक ही नहीं”

राजनीति पहलू भी हैं शामिल

डेयरी पर सख्त रुख के पीछे राजनीति भी है, लेकिन उसकी प्रकृति अलग-अलग देशों में अलग है. भारत में किसान संख्या में मजबूत वोट बैंक हैं. किसी भी सरकार के लिए उनकी अनदेखी करना राजनीतिक रूप से जोखिम भरा है.

अमेरिका में किसान आबादी का हिस्सा बहुत छोटा है, लेकिन उनकी लॉबी बेहद प्रभावशाली है. कृषि नीति वहां वोट से ज्यादा कॉरपोरेट और ट्रेड लॉबी के दबाव में बनती है. अमेरिकी नेताओं ने यह भी संकेत दिए हैं कि यदि भारत रूसी तेल पर अपनी प्रतिबद्धताओं में बदलाव करता है, तो टैरिफ पर नरमी संभव है. दूसरी ओर, अमेरिकी किसान लंबे समय से भारतीय बाजार तक पहुंच की मांग कर रहे हैं. उन्‍होंने भारतीय कपड़ा, इंजीनियरिंग उत्पादों को टैरिफ में रियायत देने के बदले कृषिजन्य उत्पादों पर रियायत मांगी है .

इसी तरह, पांचवें दौर की बातचीत के बाद भले ही India- New Zealand FTA को मंजूरी मिल गई है , लेकिन इसे अभी देश के संसद में पास होना बाकी है. न्यूजीलैंड के विदेशमंत्री विंस्टन पीटर्स (जो NZ First पार्टी के अध्यक्ष हैं) ने विरोध के सुर अपनाते हुए कहा, “भारत–NZ समझौता हमारी पहली ऐसी डील होगी जिसमें दूध, पनीर और मक्खन जैसे मुख्य डेयरी उत्पाद शामिल नहीं हैं. ये ट्रेड कहीं से भी सही नहीं और और संसद में हमारी पार्टी इसका विरोध करेगी” और इन उत्पादों का वार्षिक निर्यात पिछले वर्ष लगभग 24 अरब डॉलर (30%) था. न्यूजीलैंड में डेयरी अर्थव्यवस्था की रीढ़ है. GDP का 5 फीसदी से ज्यादा हिस्सा इसी से आता है.

भारत 13 करोड़ से अधिक अबादी वाला बड़ा बाजार है. इसलिए वहां की सरकारों पर दबाव है कि वह हर हाल में नए बाजार खोले.

हालांकि, इस मामले में अश्विनी महाजन कहते हैं, “अमेरिका और न्यूजीलैंड के लिए अपने किसानों के लिए बेहद आसान है मनाना, अगर भारत बाजार नहीं भी खोलता है तो वह दूरे बाजार उन्हें दे सकते हैं, लेकिन भारत में ये मामला बेहद संवेदनशील है.”

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इसलिए नहीं झुकता भारत

इन सभी वजहों को जोड़कर देखें, तो साफ हो जाता है कि डेयरी भारत के लिए सिर्फ एक सेक्टर नहीं है. यह ग्रामीण रोजगार, पोषण, खाद्य सुरक्षा और सामाजिक स्थिरता का सवाल है. जैसा कि विजय सरदाना और अश्विनी महाजन दोनों एक सुर में कहते है, “दबाव कितना भी हो भारत को डेयरी नहीं खोलनी चाहिए. यह फैसला एक साल के फायदे या नुकसान का नहीं, बल्कि आने वाली पीढ़ियों का है.”

यही वजह है कि अमेरिका से लेकर न्यूजीलैंड तक के दबाव के बावजूद, भारत ने डेयरी पर अपनी रेड लाइन खींच दी है और फिलहाल उसे हटाने के कोई संकेत नहीं हैं.